Wednesday, December 30, 2009
एक अनथक यात्री
कहीं पेड़ो की शाखे थी झुरमुट
निकला था पहने मृगतृष्णा का मुकुट
चेहरे पर मंद मंद मुस्कान लिए
आँखों में अजब सा तूफ़ान लिए
चलना चाहता था मै सैलाब लिए
किन्तु आसान नहीं थी डगर
ऊपर से जीवन एक अजायबघर
लोगो की संदेहास्पद शक्लें
जिन पर ठहरी हुई उनकी अक्लें
निरंतर सहज भाव से असहज होकर
अपने आपको मुझमे खोकर ...
एक अधस्वप्न लिए मुझे घूर रही थी
सोच रही थी कि ये यात्री कहाँ तक सफ़र करेगा
कितने दुःख और पीडाओं को समाज का दायित्व समझ कर भोगेगा
मगर मुझे आगे जाना था ,कुछ खोना कुछ पाना था
निरंतर अपने आपको करके सुपुर्द इस जीवन में
चला जा रहा था निर्जन वन में
इतने कष्ट और पीडाएं सहने के बाद भी
न जाने कौन सा अभिलाषा उसे आगे ले जा रही थी
उसे विश्वास है कि वो पहुचेगा मंजिल पर एक दिन
इसलिए वो है एक अनथक यात्री
Monday, December 28, 2009
झंडे , डंडे और मुस्तंडे
माना जाता है की छुआछूत आज भी इस देश में है , इस समस्या से पार पाने में बड़े - बड़े पोंगा पंडितो ने भी कहा है की जाती प्रथा वर्ण व्यवस्था तो भारत से कभी नहीं जा सकती......... अगर कोई इस जात पात से बचा है तो वो है राजनीती , वो कहते है न की राजनीती में कोई अछूत नहीं ...
तो यही से बात निकलती है झारखण्ड राज्य में हुए इस वर्ष के चुनाव परिणामो से जहाँ "झारखण्ड मुक्ति मोर्चा " एक मात्र ऐसी पार्टी उभर कर आई है जिसे सबसे ज्यादा (१८) सीट मिली । इसके बाद कांग्रेस गठबंधन को २५ और बीजेपी गठबंधन को २० सीटे मिली ....
आपने अखरोट की तरह टूटते जीवन में शायद गुरूजी 'शिबू सोरेन ' को एक बार फिर मोका मिला है की वो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपनी कमर तोड़ सके और इस बार भाग्य भी उनका साथ देता नज़र आ रहा है ... क्युकी कल तक जिस बागी नेता को बीजेपी गलिया देती आई थी आज उसी के साथ हाथ में हाथ डाल कर ' हम होंगे कामियाब एक दिन ' के नारे लगा रहे है ...
बीजेपी के नए अध्यक्ष नितिन गडकरी ने अपने अध्यक्ष बन्ने की ख़ुशी में पार्टी को एक नया तोहफा देने के लिए शायद गुरूजी के चरण स्पर्श कर लिए और गुरूजी ने भी दक्षिणा में गठबंधन का एकलव्य नुमा अंगूठा मांग लिया ॥ क्युकी गुरूजी तो ठहरे गुरूजी जिनकी बचपन से एक ही तमन्ना रही हे की झारखण्ड का सी एम् बनना है .... इस बार फिर गुरूजी चिल्ला चिल्ला के कह रहे है की 'फिर वही दिल लाया हूँ मगर इस खिचड़ी सरकार में बीजेपी ने असंतोष जताते हुए गुरूजी के सी एम् बन्ने के फैसले को फिलहाल तो अधर में लटका दिया है।
राजीव प्रताप रूडी ने आपनी पार्टी के निष्पक्ष और विश्वसनीय नेता होने के naate विरोध भी जाता दिया हे की जिस नेता को हम पिछले कई सालो गलिया देते आ रहे है और जिसका विरोध करना ही हमारी पार्टी का मेन मकसद रहा हे उसके साथ अपने झंडे , डंडे और मुस्तंडे क्यों मिलवाये , मतलब क्यों गुरूजी के साथ सरकार बनाये ,,
जहाँ तक बीजेपी का सवाल है तो उनके नए अध्यक्ष भाऊ गडकरी से काफी उम्मीदे थी पर वो भी उस्सी तरह की राजनिति को आगे बढ़ाते दिख रहे जो बीजेपी में हमेशा से चलते आरही है ॥
खैर इससे एक बात तो अब आम जनता को समझ में आ ही गई है की राजनीती में न तो कोई नैतिकता होती है न कोई सिद्धांत होता हे अगर कुछ होता तो एक लक्ष्य कुर्ती को पाने का लक्ष्य ....
तो झारखण्ड के चुनाव नतीजो से जो खिचड़ी सरकार बनती नज़र आ रही हे वो यह है की - " इस हमाम में किसी के पास अंडरवेयर नहीं है ".....
Saturday, October 10, 2009
अंधा बाँटें रेवड़ी , ओबामा को देई
हिन्दी की फेमस कहावत है की "अंधा बाटें रेवड़ी , अपने अपने को देई " आज काफी सालो बाद इस कहावत से साक्षात्कार हुआ है । किसी ने सही ही कहा की जब अंधा आदमी रेवड़ी बाटता है तो ख़ुद को ही देता .
वैसे नोबल कमिटी की तरफ़ से बयां आया है की -" ओबामा ने जिस तरह से दुनिया का ध्यान अपनी तरफ़ खीचा और अपने लोगो को बेहतर भविष्य की उम्मीद जगाई वैसा कोई बिरला नही कर पता "
९ अक्टूबर २००९ शायद दुनिया के इत्तिहास में दर्ज होने वाली तारीख थी जब अमेरिका के प्रेसि। ओबामा को नोबल पुरस्कार दिया गया
वैसे तो ओबामा को शान्ति के लिए नोबल पुरस्कार मिलना एक अचम्भा ही कहा जा सकता है क्युकी नोबल पुरस्कार के लिए नोमिनेशन की जो आखरी तारीख थी वो '१ फरवरी ' थी परन्तु ओबामा राष्ट्रपति २० जनवरी को बने तो क्या इतनी जल्दी से ही फ़ैसला हो गया की ओबामा साहब तो शान्ति के दूत बन कर इस धरती पर उतरे है ।
और अमेरिका के किसी प्रेसिडेंट को नोबल प्राइज दिया जन वो भी शान्ति के लिए ये तो एक हस्स्यस्पद बात कही जायेगी ।
वैसे मनमोहन सिंह ने इस पर काफी खुशी जताते हुए ये कहा है की ओमाबा एक इसे व्यक्ति है जिन्होंने ये कहा है की -" आज के अमेरिका की जड़े महात्मा गाँधी के भारत से निकलती है " वाह !! काश ओबामा यह कहते की आज के अमेरिका की जड़े सोनिया गाँधी के विचारो से चलती है तो जनाब मनमोहन सिंह तो ओबामा को बिना मरे ही परमवीर चक्र दे देते। वैसे इरान के प्रेसिडेंट ने कहा है की - ओबामा को नोबल मिलने से हम अपसेट नही है बस उम्मीद करते है की अब तो वो दुनिया से नाइंसाफी मिटने के लिए व्यावहारिक कदम उठाना शुरू करेंगे ।
वैसे ओबामा ने कुछ शान्ति कयाम करने का भरसक प्रयास भी किया जैसे - नॉर्थ कोरिया के साथ कामियाब डिप्लोमेसी करने की कोशिश की, मुस्लिम देशो को साथ लेने की कोशिश की , ४८ साल बाद इरान और म्यांमार जैसे देशो से बातचीत के रस्ते निकले , वैसे ओबामा की ग्लोबल डिप्लोमेसी का फोकस था मुस्लिम जगत तक पहुचना ।
पर क्या इतने काम काफ़ी है नोबल पुरस्कार पाने के लिए ये , क्युकी इतिहास गवाह है की अमेरिका के प्रेसिडेंट हमेशा बदलते है परन्तु उनके देश की नीतिया कभी नही बदलती । और अगर बात शान्ति का है तो ओबामा का ट्रैक रिकॉर्ड अभी भी बुश से किसी मायने में काम नही है , उनके सत्ता में आने के तुंरत बाद ही उत्तर कोरिया ने परमाणु परिक्षण किया और इरान भी काफी हद तक पहुच ही गया है , पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार इराक से अमेरिकी फौजे वापस आने थी परन्तु ऐसा नही हुआ , उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती अफगानिस्तान की है जहाँ हालत दिन पे दिन बिगड़ते ही जा रहे है , पकिस्तान में ओबामा बुश की गलतिया दुगने उत्साह से दोहरा रहे है क्युकी उसे दी जान वाली सहायता राशी ३ गुनी कर दी गई है बगैर ये जाने की वो दी जाने वाली राशि का उपयोग अपने पड़ोसी देशो में आतंकवादी गतिविधियों के लिए तो नही कर रहा है , क्युकी हाल ही में पकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति मुशर्रफ की तरह से बयान आया है की अमेरिका से दी जाने वाली सहायता राशी का उपयोग भारत के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियों में किया गया था ।
अंकल सेम के इस देश ने ही आज पुरी दुनिया में इतनी समस्याए खड़ी कर दी है की जिससे पार पाना बहुत मुश्किल हो गया है , भारत में व्याप्त कश्मीर समस्या के लिए भी अमेरिका ही जिम्मेदार है , अफगानिस्तान में तालिबान को अमेरिका ने अपने फायदे के लिए खड़ा किया जब वो उसी के लिए भस्मासुर बन गया तो फ़िर उसे ही मारने चला , दुनिया में सबसे ज्यादा एटमी हथियार आज अमेरिका का पास है , अमेरिका का इराक पे हामला करने का मकसद भी अब साफ़ हो गया है जब वो पुरी दुनिया को इराक का तेल सप्लाय कर रहा है , पकिस्तान में ड्रोन हमले अभी भी जारी है , हर देश में अपना सैनिक अड्डा बनाना अमेरिका का हमेशा से ही मकसद रहा है , दुनिया आज ये भालीभाती जान गई है की हर देश में मल्टीनेशनल कंपनीया लगा कर माल कमाने के आलावा अमेरिका ने आजतक कुछ किया नही है ।
ओबामा को नोबल पुरस्कार दिया जान वो भी शान्ति के लिए , फ़िर तो इस वाकिये पर वासिम बरेलवी का एक ही फेमस शेर याद आता है जो अगर वासिम बरेलवी साहब ने नही लिखा होता तो शायद ओबामा के द्वारा ही लिखा गया होता की -
जिंदगी तुझपे अब इल्जाम क्या रक्खे
तेरा एहसास ही एसा है की तनहा रक्खे।
Thursday, October 1, 2009
बड़े बाबू ने किया सच का सामना
कलेक्ट्रेट के बड़े बाबू रमेशचंद्र शर्मा गरम कुर्सी यानि हॉट सीट पर थे , अवसर था सच का सामना करने का । बाबू का जीवन भी कोई जीवन होता है न अवैध बच्चे , न अवैध सम्बन्ध , न कभी ड्रग्स ली न जेल गए , बचपन में बाप के डर से न ही सिगरेट पी , बड़े होने पर बीवी के डर से शराब को हाथ भी नही लगाया , यानि की कोई सच था ही नही सामना करने को इसलिए उन्हें भरोसा था की बगैर इज्ज़त गवाए और कपड़े उतरवाए एक करोड़ रुपए आसानी से जीत लेंगे।
सामने सोफे पर बैठने के लिए उनकी पत्नी , ससुर ओर माँ को बुलाकर बिठाया गया था ताकि बेइजत्ती ढंग से हो और कुछ इमोशनल क्लोस अप लिए जा सके ।
' पहला सवाल ' एंकर ने आत्मविश्वास या डर से मुस्कुराते हुए रमेश बाबू पर दागा " क्या आप बचपन में स्कूल से भाग कर अमिताब बच्चन की पिक्चर देखने जाते थे ?
रमेश बाबू चुप रहे वे जानते थे की १ रुपए ६० पैसे की फर्स्ट क्लास की टिकेट के लिए वो "बॉबी" और "शोले"जैसी फिल्मो की पिंजरे नुमा लाइन में लगे पुलिस के डंडे खाया करते थे , पर उन दिनों यह बुरी बात नही मानी जाती थी ।
हिम्मत करके बोले - सच है ,पोलिग्राफी टेस्ट के रिजल्ट लिए गब्बरनुमा म्यूजिक बजा " ये जवाब सही है " । एंकर ने रमेश बाबू की माँ से पुछा " माजी कैसा लग रहा है आपको ये सच जानकर " "कैसा क्या लग रहा है ये कौन सी नई बात है इसके बाबूजी ख़ुद तड़ी मार कर पिक्चर जाते थे मधुबाला की - माँ ने जवाब दिया ।
आप १ लाख रुपए जीत गए है लेकिन आगे के सवाल आपको परेशानी में डाल सकते है । सूट बूट धारी बड़े बाल वाला एंकर शर्टधारी अध्गंजे रमेश बाबू से।
" अगला सवाल क्या ये सच है की अपनी शादी में कँवर कलेवा के वक्त आपको एच एम् टी की हाथ घड़ी दी गई जबकि आप चाहते थे की आपको टेपरिकॉर्डर मिले "
रमेश बाबू की आँखों के सामने शादी का दृश्य घूम गया जवानी में वो यूनियन के लीडर थे , साथी उन्हें कॉमरेड कहते थे और थोड़े बहुत आदर्शवादी वो थे भी लेकिन वो ज़माना टेपरिकॉर्डर का था और उनकी दिलितमन्ना थी की चाहे कन्या एक जोड़े में घर आए पर उसके साथ एक टापरिकॉर्डर जरुर हो ताकि उसमे शादी के बाद मुकेश और लता के दर्द भरे गाने सुने जा सके ।
पसीना पोछ कर रमेश बाबू बोले - सच है ' जवाब सही था। कैमरा तुंरत रमेश बाबू के ससुर जी पर जूम हुआ "ससुर जी कैसा लग रहा है आपको ? क्या रमेशा बाबू यानि की आपके दामाद दहेज़ लोभी है? "
"मै तो चाहता ही नही था की मेरी बेटी की शादी किसी मास्टर या बाबू से हो जीवन भर तो ख़ुद का मकान बनवा नही पाते ये लोग प्रोविडेंट फंड से पार्ट , फाइनल निकलते है , बेटे की पढ़ाई के लिए 'एजूकेशन लोन ' का मुह ताकते है"।
स्मार्ट एंकर पस्त रमेश बाबू से - शर्मा जी आप बहुत अच्छा खेल रहे है पर आगे के सवाल आपके परेशानी मै डाल सकते है , आप तैयार है ? रमेश बाबू ने पत्नी की तरफ़ मंजूरी के लिए देखा , ख़ुद को टीवी पर पहली बार आने के ख्याल से ही वो इतनी खुश थी की इसे उसकी हामी समझ रमेश बाबू ने भी हामी भर दी ।
"अगला सवाल " - क्या ये सच है की अक्सर जब आपके नाई की दुकान पर बाल कटवाने जाते है , तो घंटो वहाँ बैठे घटिया मेग्ज़ीन पढ़ा करते है और घर आकर अपनी पत्नी को लम्बी लाइन का बहाना बना देते है ताकि सन्डे का कुछ समय आपके शब्दों मै "आराम से कट सके " । रमेश बाबू समझ गए इस सच को कबूल करने के बाद उनका सन्डे बर्बाद होने वाला था और श्रीमतिजी उनसे घर मै मकडी के जाले और पानी की टंकी साफ़ करवाने वाला काम करवाने वाली थी । पर सवाल ५ लाख का था लिहाज़ा जी कट्ठा कर के बोले - सच है , पोलीग्राफ टेस्ट की तस्दीक होते ही श्रीमतीजी शर्मा - " जभी मै सोचू की तुम्हारे बाल है ही कितने जो तुम हर रविवार कटवाने चले जाते हो अब बताना जाकर ।
तंदुरुस्त एंकर दुबले पतले रमेश बाबू से आप चाहे तो ये खेल छोड़ कर जा सकते है क्योकि आगे का सवाल आपका वैवाहिक जीवन बरबाद कर सकते है , शर्मा जी ने सोचा बचा ही क्या है बर्बाद होने को इसलिए वो पर्सनल सवाल का सामना करने को भी तैयार हो गए ।
"अगला सवाल " - क्या ये सच है की रोज़ सब्जी खरीदकर घर लाने के बाद आपके अपनी पत्नी को कम भाव बताते थे ? जबकि असल मे आपके ज्यादा दाम चुकाकर आते थे , उदाहरण के लिए आप गिल्की ८ रूपये पाव लाये तो आप भाभीजी को ४ रुपए कहते थे ताकि वो नाराज़ न हो जाए ?
अब रमेश बाबू घबरा गए कहीं ये सवाल उनका तलाक़ ना करवा दे ? पर १० लाख का सवाल था लिहाज़ा उन्होने लंबे इंतज़ार के बाद यानि तब तक दर्शक चॅनल बदलने के लिए रिमोट का बटन दबाने ही वाले थे की कहा - "सच है "
श्रीमती शर्मा सोफे पर पर करवट बदल रही थी रमेश बाबू की माँ के चेहरे पर मुस्कराहट थी और उनके ससुर समझ नही पा रहे थे की कौन सा एक्सप्रेशन दूँ ।
कमला जी , एंकर श्रीमती शर्मा जी की तरफ़ मुखातिब हुआ - क्या कहेंगी आप इस सच पर, रमेश बाबू की पत्नी की आँखों मे आंसू आ गए - " मुझे पहले ही शक था की इनकी बेवकूफी भरी शकल देख कर ही सब्जी वाली चार गुना दाम बता देती होगी और ये ले आते होंगे पर अब मुझे समझ मे आया की घर मे बचत क्यों नही होती , जब से शादी हुई है एक - एक चीज़ को तरस रही हूँ पर अब मे बर्दाश्त नही कर सकती, मै जा रही हूँ अपने माइके संभालो अपना घर "
सेट पे अफरा तफरी मच गई रमेश बाबू हॉट सीट से कूद कर श्रीमती शर्मा के पीछे भागे । और एंकर को यह सोचते - सोचते ब्रेक लेना पड़ा की ये सेल मिडिल क्लास लोग हिम्मत नही है सच का सामना करने की आगे से ऐसे लोगो पर "बैन"
Monday, September 21, 2009
पिछली गली की चम्पाकली
नज़र के सामने जिगर के पास ,
कोई रहता है..... वो हो तुम
वाकई में आज भी ये गाना जवां दिलो की धड़कने रोक देता है , लोगो में प्यार के प्रति एक नया ताजापन ला देता है , रोडसाइड रोमियो टाइप के छिछोरे छोरो को काफी हिम्मत देता है , हैण्डपम्प टाइप के हैण्डसम लोग इस गाने का इस्तेमाल करते समय अपने आप को रोमियो ओर ओर दुसरे की बीवी को जुलिअट समझलेते है ओर फ़िर खूंखार पतियों का शिकार बनते है ..............
खैर आज तो ग्लोब्लिज़शन का ज़माना है तो इस गाने को भी तो नए जमाने के मज्नुओ ने ग्लोबलाइज़ कर दिया है .......
अब ये गाना हो गया है....... नेट के सामने , चेटरूम के पास
कोई रहती है , वो है चम्पाकली ।
खैर ये कहने में अब हर्ज़ ही क्या है क्युकी आज के मॉडर्न ज़माने में तो हमारे चम्पको की चम्पाकली वही मिलेगी ना - पिछली गली में ..... यानि की इन्टरनेट पर क्युकी भइया मजनू मॉडर्न होगये है ज़माने के साथ चल रहे है , खैर अगर आप मुझसे इस बारे में पूछे तो में तो अपने बारे में इतना ही कह सकता हु जब से नेट चलाना सिखा है की ..................
मेरा भी वनवास पर जाने का इरादा था मगर
मुझको इन्टरनेट पर कोई सीता नही मिली ।
ओर मै नेट पे सेट नारे लगाने वाला लौंडा तो हूँ नही मै तो यही कहता हू की जो किसी शायर ने भी कहा है .........
दिल वो बस्ती है जहाँ कोई तमन्ना नही मिली
मै वो पनघट हूँ जिसे कोई राधा नही मिली .......
वैसे ये हकीक़त किसी से छुपी नही है की आज का छोरा जब बोर होता है तो वो छोरियों के घर के चक्कर काटने वाले डरावने ओर पथरीले रास्तो...( जिसमे प्रतिपल उस क्षेत्र के गुंडों का डर तो रहता है जब वो सीटिया मारते हुए छोरियों के घर के चक्कर काटता है) इसलिए उसने एक नेक ओर शरीफों वाला रास्ता चुना है जिस आसान रास्ता का नाम है - पिछली गली की चम्पाकली , क्युकी ये एक शार्टकट है जिसमे चम्पक , चम्पकलियो को खुल्ले आम एक खास किस्म के लाइसेंस ( नेट ) पे सेट करते है वैसे कही कही पे आश्चर्यचकित करते हुए ये काम छोरियाँ भी करती है ...........
हलाकि अभी तक ऐसे रिलेशन बहुत काम ही देखने को मिले है जो सुख के साथ दांपत्य जीवन का निर्वाह कर रहे है ...........
क्युकी ये तो वही बात है न की ........ रहेगा रांची और शादी करेगा कराची .........
वैसे कुछ मज्नुओ को बिना देखे ही नेट पर प्यार हो जाता है और कुछ आशिक मिजाज़ इसे रियल लव कहते है ..... और बन्दे की तारीफों के पुल बांधते की वाह क्या लड़का है प्यार हो तो ऐसा ...... ओर जब उन्हें धोका मिलता है तो वो जगजीत सिंग की ग़ज़ल गाते है ................की
प्यार का पहला ख़त लिखने मै वक्त तो लगता है
नए परिंदों को उड़ने मै वक्त तो लगता है ।
ओर ये प्यार इस हद तक पहुच जाता है की कुछ मजनू जो कभी सु - साइड करते थे आज वो सुसाईड करने लगते है और उन चम्पाकलीयों के लिए जान दे देते है जो बाद मै नेट पर लड़को की कारस्तानी निकलती है ।
खैर भगवान् से यही प्रार्थना है की अब ये पिछले गली का खेल लोग जल्दी ही समझ जाए और आँखों देखि पर ज्यादा विश्वास करे ,,,,,,, और मै तो यही कहता हू हर चम्पक और चम्पाकली से की .......
नेट हर मजनू को प्यार मै उतार लेता है
और लव चेट वो है जो अच्छो अच्छो के जेवर उतार लेता है .............
कोई रहता है..... वो हो तुम
वाकई में आज भी ये गाना जवां दिलो की धड़कने रोक देता है , लोगो में प्यार के प्रति एक नया ताजापन ला देता है , रोडसाइड रोमियो टाइप के छिछोरे छोरो को काफी हिम्मत देता है , हैण्डपम्प टाइप के हैण्डसम लोग इस गाने का इस्तेमाल करते समय अपने आप को रोमियो ओर ओर दुसरे की बीवी को जुलिअट समझलेते है ओर फ़िर खूंखार पतियों का शिकार बनते है ..............
खैर आज तो ग्लोब्लिज़शन का ज़माना है तो इस गाने को भी तो नए जमाने के मज्नुओ ने ग्लोबलाइज़ कर दिया है .......
अब ये गाना हो गया है....... नेट के सामने , चेटरूम के पास
कोई रहती है , वो है चम्पाकली ।
खैर ये कहने में अब हर्ज़ ही क्या है क्युकी आज के मॉडर्न ज़माने में तो हमारे चम्पको की चम्पाकली वही मिलेगी ना - पिछली गली में ..... यानि की इन्टरनेट पर क्युकी भइया मजनू मॉडर्न होगये है ज़माने के साथ चल रहे है , खैर अगर आप मुझसे इस बारे में पूछे तो में तो अपने बारे में इतना ही कह सकता हु जब से नेट चलाना सिखा है की ..................
मेरा भी वनवास पर जाने का इरादा था मगर
मुझको इन्टरनेट पर कोई सीता नही मिली ।
ओर मै नेट पे सेट नारे लगाने वाला लौंडा तो हूँ नही मै तो यही कहता हू की जो किसी शायर ने भी कहा है .........
दिल वो बस्ती है जहाँ कोई तमन्ना नही मिली
मै वो पनघट हूँ जिसे कोई राधा नही मिली .......
वैसे ये हकीक़त किसी से छुपी नही है की आज का छोरा जब बोर होता है तो वो छोरियों के घर के चक्कर काटने वाले डरावने ओर पथरीले रास्तो...( जिसमे प्रतिपल उस क्षेत्र के गुंडों का डर तो रहता है जब वो सीटिया मारते हुए छोरियों के घर के चक्कर काटता है) इसलिए उसने एक नेक ओर शरीफों वाला रास्ता चुना है जिस आसान रास्ता का नाम है - पिछली गली की चम्पाकली , क्युकी ये एक शार्टकट है जिसमे चम्पक , चम्पकलियो को खुल्ले आम एक खास किस्म के लाइसेंस ( नेट ) पे सेट करते है वैसे कही कही पे आश्चर्यचकित करते हुए ये काम छोरियाँ भी करती है ...........
हलाकि अभी तक ऐसे रिलेशन बहुत काम ही देखने को मिले है जो सुख के साथ दांपत्य जीवन का निर्वाह कर रहे है ...........
क्युकी ये तो वही बात है न की ........ रहेगा रांची और शादी करेगा कराची .........
वैसे कुछ मज्नुओ को बिना देखे ही नेट पर प्यार हो जाता है और कुछ आशिक मिजाज़ इसे रियल लव कहते है ..... और बन्दे की तारीफों के पुल बांधते की वाह क्या लड़का है प्यार हो तो ऐसा ...... ओर जब उन्हें धोका मिलता है तो वो जगजीत सिंग की ग़ज़ल गाते है ................की
प्यार का पहला ख़त लिखने मै वक्त तो लगता है
नए परिंदों को उड़ने मै वक्त तो लगता है ।
ओर ये प्यार इस हद तक पहुच जाता है की कुछ मजनू जो कभी सु - साइड करते थे आज वो सुसाईड करने लगते है और उन चम्पाकलीयों के लिए जान दे देते है जो बाद मै नेट पर लड़को की कारस्तानी निकलती है ।
खैर भगवान् से यही प्रार्थना है की अब ये पिछले गली का खेल लोग जल्दी ही समझ जाए और आँखों देखि पर ज्यादा विश्वास करे ,,,,,,, और मै तो यही कहता हू हर चम्पक और चम्पाकली से की .......
नेट हर मजनू को प्यार मै उतार लेता है
और लव चेट वो है जो अच्छो अच्छो के जेवर उतार लेता है .............
Monday, September 14, 2009
मेरी हिन्दी mat करो यार ! !
एम्स हॉस्पिटल के इमर्जेंसी वार्ड में हिन्दी बेड पर पड़ी हुई है , उसे ओक्सिजेन मास्क लगा हुआ है , उसकी रीड़ की हड्डी बुरी तरह टूट चुकी है , कोई देखने वाला नही है , डोक्टोर्स ने भी आई एम् सॉरी कह कर पल्ला झाड़ लिया है ,
सुनने में आया है की हिन्दी को हार्ट अटेक आया था, वो भी उसके जन्मदिन के दिन मतलब हिन्दी दिवस पर जब उसकी जन्मदिन की बर्थडे पार्टी में किसी ने ये कह दिया - (मेरी हिन्दी मर करो यार ....................) बात शाम के ५ बजे की है हिन्दी की जन्मदिन पार्टी में बहुत बड़े बड़े मेहमान आए थे जैसे उर्दू, स्पेनिश , फ्रेंच , रशीयन , इंग्लिश ओर हमारे देश के भी अलग अलग राज्यों से हिन्दी के कुछ रिश्तेदार आए थे जैसे तमिल , तेलगु , बंगाली , पंजाबी ओर भी बहुत सरे थे जिनकी सूचि काफी लम्बी है , हमारे देश के कुछ मेहमानों ने पार्टी में मस्ती के दौरान मजाक मजाक में कह दिया - मेरी हिन्दी मत करो यार .... ये सुनते ही हिन्दी को अचानक हार्ट अटेक आगया क्युकी उसका इतना बुरा अपमान उसकी के घर में शायद पहले किसी ने नही किया था ।
( यार तुने मेरी सबके सामने हिन्दी कर दी , यार मेरी गर्लफ्रेंड के सामने तो मेरी हिन्दी मत किया कर , यार तुझे पता है कल क्लास में मैडम ने मुझसे एक आसान सा सवाल पुछा यार में उसका उत्तर नही दे पाया मेरी तो पूरी क्लास के सामने हिन्दी हो गई , मेने सुना आजकल तू मेरी बहुत हिन्दी कर रहा है देखलियो नही तो अच्छा नही होगा फ़िर में तेरी सबके सामने इसी हिन्दी करूँगा की तू कही मुह दिखने लायक नही रहेगा )-
ये शब्द आजकल आम बोल चल की भाषा में काफी प्रयोग किए जाते है खास कर के युवाओ में , बच्चो में और कुछ जवानों में भी, ये बोलने वाले लोग अक्सर ये नही समझ्पते की वो क्या बोल रहे है , वो मात्रभाषा का अपमान कर रहे है क्या अब हमारे देश की महारानी को नौकरानी जैसी जिन्दगी गुजारनी पड़ेगी ?
क्या हम आज अपमान की जगह पर यूज़ किए जाने वाले शब्दों को हिन्दी से जोड़कर देख्नेंगे??? हम कैसे समाज की कल्पना करना चाहते है ओर हमारे बच्चो हम क्या दिखाना चाहते की क्या हिन्दी अब सिर्फ़ उन बुजुर्गो लोगो की जागीर बन के रह गई है जिन्होंने अपना सारा जीवन हिन्दी की उत्थान में लगा दिया ................. या अब माँ के सामने भी शर्म आने लगती है ।
हाल फिलहाल ही बुद्धू बक्से (टीवी) के बहुचर्चित प्रोग्राम बालिका वधु में आनंदी के द्वारा भी कई बार इस्तेमाल किया गया है की मेरी हिन्दी कर दी ........ वैसे लोगो की नज़र में हिन्दी करने से मतलब है की तुने मेरा अपमान क्यो किया ? क्या हमारी मात्रभाषा अब हमे अपमान लगने लगी है ? जो हमे इस तरह के कटु शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ रहा है ।
हाल ही में हिन्दी के एक चर्चित लेखक ने कहा की- इंग्लिश को सर्व करो और हिन्दी को गर्व करो । लेकिन यहाँ तो मामला उल्टा ही दिखाई पड़ता है लोग हिन्दी को सर्व कर रहे है और इंग्लिश को गर्व करो जिसका उदाहरण हमे उन नेताओ से मिल ही जाता है जो चुनाव के समय हिन्दी में वोट मांगने आते है ओर संसद में हमारी समस्याए अंग्रेजी में डिस्कस करते है , हमारे क्रिकेट प्लेयर और मंद्पसंद फ़िल्म स्टार जो हमेशा अंग्रेजी में ही बडबडाते रहते है,
एक बहुत बड़ा मिथक तो ये है की कुछ लोगो का कहना है की हिन्दी में तो साहब विज्ञान पड़ा ही नही जा सकता विज्ञान पड़ने के लिए तो अंग्रेजी जरुरी है वो लोग ये नही जानते की चीन ओर जापान जैसे देश जो अंग्रेजी का आया भी नही जानते आज विज्ञान में सबसे आगे है ।
खैर हम तो बात कर रहे थे हिन्दी करने की वैसे ये शब्द सुनने में बड़ा आचा लगता है लेकिन कही न कही ये शब्द कुछ हिंगलिश के प्रकांड पंडितो ने इजात किया है , या ये किसी मानसिक विकृत आदमी के दिमाग की उपज है या किसी शरारती बच्चे की जिसे ये कहने में मज़ा आता है - माय नामे इस बोंड जेम्स बोंड हलाकि इससे खैके पान बनारस वाले तो काफी चिडे हुए है पर उनमे से भी कुछ ने तो अब धीरे धीरे लाइफ बॉय साबुन की तरह इसे अपनाना शुरू कर दिया है ।
जहाँ तक बच्चो का सवाल है वो तो हिन्दी करो का नारा बुलंद किए हुए है , वो लोग हिन्दी की हिन्दी बड़ी तबियत से उस डिटर्जेंट द्वारा धोया जा रहा है जिसका नारा है - इंग्लिश को माफ़ करो हिन्दी को साफ़ करो ।
खैर इसी बीच एक खुशखबरी सुनने में आई है की हिन्दी को अस्पताल के वार्ड बॉय द्वारा दिए गए करेंट के झटको का कुछ असर दिखने लगा है ओर हिन्दी की हालत कुछ सुधरती हुई दिखाई देती नज़र आ रही है शायद कुछ दुवाओं का असर होने ही लगा है शायद तभी ये चमत्कार हो गया की आई सी यू में भरती होने के बावजूद भी हिन्दी ठीक होने लगी है ......... अब हमे दुवा करने की जरुरत है की लोग हिन्दी करो का नारा नही लगाये और हिन्दी पर गर्व करे ॥ नही तो हिन्दी की हालत एक ऐसे पागल प्रेमी जैसी हो जायेगी जिसे उसकी प्रेमिका नही मिली और वो तेरे नाम के सलमान जैसे हो गया हो।
दुष्यंत कुमार का एक फेमस शेर है की -
कौन कहता है असमान में सुराख़ नही हो सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो ।
सुनने में आया है की हिन्दी को हार्ट अटेक आया था, वो भी उसके जन्मदिन के दिन मतलब हिन्दी दिवस पर जब उसकी जन्मदिन की बर्थडे पार्टी में किसी ने ये कह दिया - (मेरी हिन्दी मर करो यार ....................) बात शाम के ५ बजे की है हिन्दी की जन्मदिन पार्टी में बहुत बड़े बड़े मेहमान आए थे जैसे उर्दू, स्पेनिश , फ्रेंच , रशीयन , इंग्लिश ओर हमारे देश के भी अलग अलग राज्यों से हिन्दी के कुछ रिश्तेदार आए थे जैसे तमिल , तेलगु , बंगाली , पंजाबी ओर भी बहुत सरे थे जिनकी सूचि काफी लम्बी है , हमारे देश के कुछ मेहमानों ने पार्टी में मस्ती के दौरान मजाक मजाक में कह दिया - मेरी हिन्दी मत करो यार .... ये सुनते ही हिन्दी को अचानक हार्ट अटेक आगया क्युकी उसका इतना बुरा अपमान उसकी के घर में शायद पहले किसी ने नही किया था ।
( यार तुने मेरी सबके सामने हिन्दी कर दी , यार मेरी गर्लफ्रेंड के सामने तो मेरी हिन्दी मत किया कर , यार तुझे पता है कल क्लास में मैडम ने मुझसे एक आसान सा सवाल पुछा यार में उसका उत्तर नही दे पाया मेरी तो पूरी क्लास के सामने हिन्दी हो गई , मेने सुना आजकल तू मेरी बहुत हिन्दी कर रहा है देखलियो नही तो अच्छा नही होगा फ़िर में तेरी सबके सामने इसी हिन्दी करूँगा की तू कही मुह दिखने लायक नही रहेगा )-
ये शब्द आजकल आम बोल चल की भाषा में काफी प्रयोग किए जाते है खास कर के युवाओ में , बच्चो में और कुछ जवानों में भी, ये बोलने वाले लोग अक्सर ये नही समझ्पते की वो क्या बोल रहे है , वो मात्रभाषा का अपमान कर रहे है क्या अब हमारे देश की महारानी को नौकरानी जैसी जिन्दगी गुजारनी पड़ेगी ?
क्या हम आज अपमान की जगह पर यूज़ किए जाने वाले शब्दों को हिन्दी से जोड़कर देख्नेंगे??? हम कैसे समाज की कल्पना करना चाहते है ओर हमारे बच्चो हम क्या दिखाना चाहते की क्या हिन्दी अब सिर्फ़ उन बुजुर्गो लोगो की जागीर बन के रह गई है जिन्होंने अपना सारा जीवन हिन्दी की उत्थान में लगा दिया ................. या अब माँ के सामने भी शर्म आने लगती है ।
हाल फिलहाल ही बुद्धू बक्से (टीवी) के बहुचर्चित प्रोग्राम बालिका वधु में आनंदी के द्वारा भी कई बार इस्तेमाल किया गया है की मेरी हिन्दी कर दी ........ वैसे लोगो की नज़र में हिन्दी करने से मतलब है की तुने मेरा अपमान क्यो किया ? क्या हमारी मात्रभाषा अब हमे अपमान लगने लगी है ? जो हमे इस तरह के कटु शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ रहा है ।
हाल ही में हिन्दी के एक चर्चित लेखक ने कहा की- इंग्लिश को सर्व करो और हिन्दी को गर्व करो । लेकिन यहाँ तो मामला उल्टा ही दिखाई पड़ता है लोग हिन्दी को सर्व कर रहे है और इंग्लिश को गर्व करो जिसका उदाहरण हमे उन नेताओ से मिल ही जाता है जो चुनाव के समय हिन्दी में वोट मांगने आते है ओर संसद में हमारी समस्याए अंग्रेजी में डिस्कस करते है , हमारे क्रिकेट प्लेयर और मंद्पसंद फ़िल्म स्टार जो हमेशा अंग्रेजी में ही बडबडाते रहते है,
एक बहुत बड़ा मिथक तो ये है की कुछ लोगो का कहना है की हिन्दी में तो साहब विज्ञान पड़ा ही नही जा सकता विज्ञान पड़ने के लिए तो अंग्रेजी जरुरी है वो लोग ये नही जानते की चीन ओर जापान जैसे देश जो अंग्रेजी का आया भी नही जानते आज विज्ञान में सबसे आगे है ।
खैर हम तो बात कर रहे थे हिन्दी करने की वैसे ये शब्द सुनने में बड़ा आचा लगता है लेकिन कही न कही ये शब्द कुछ हिंगलिश के प्रकांड पंडितो ने इजात किया है , या ये किसी मानसिक विकृत आदमी के दिमाग की उपज है या किसी शरारती बच्चे की जिसे ये कहने में मज़ा आता है - माय नामे इस बोंड जेम्स बोंड हलाकि इससे खैके पान बनारस वाले तो काफी चिडे हुए है पर उनमे से भी कुछ ने तो अब धीरे धीरे लाइफ बॉय साबुन की तरह इसे अपनाना शुरू कर दिया है ।
जहाँ तक बच्चो का सवाल है वो तो हिन्दी करो का नारा बुलंद किए हुए है , वो लोग हिन्दी की हिन्दी बड़ी तबियत से उस डिटर्जेंट द्वारा धोया जा रहा है जिसका नारा है - इंग्लिश को माफ़ करो हिन्दी को साफ़ करो ।
खैर इसी बीच एक खुशखबरी सुनने में आई है की हिन्दी को अस्पताल के वार्ड बॉय द्वारा दिए गए करेंट के झटको का कुछ असर दिखने लगा है ओर हिन्दी की हालत कुछ सुधरती हुई दिखाई देती नज़र आ रही है शायद कुछ दुवाओं का असर होने ही लगा है शायद तभी ये चमत्कार हो गया की आई सी यू में भरती होने के बावजूद भी हिन्दी ठीक होने लगी है ......... अब हमे दुवा करने की जरुरत है की लोग हिन्दी करो का नारा नही लगाये और हिन्दी पर गर्व करे ॥ नही तो हिन्दी की हालत एक ऐसे पागल प्रेमी जैसी हो जायेगी जिसे उसकी प्रेमिका नही मिली और वो तेरे नाम के सलमान जैसे हो गया हो।
दुष्यंत कुमार का एक फेमस शेर है की -
कौन कहता है असमान में सुराख़ नही हो सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो ।
Wednesday, September 9, 2009
राजनीती के नूरेचश्म !!
भूख है तो सब्र कर
इस समय दिल्ली में ज़ेरे बहस ये मुद्दा ।
दुष्यंत कुमार के इस फेमस शेर से तो सभी वाकिफ है , और जो वाकिफ नही है अपनी कुछ गलतियों की वजह से वो अब हो ही गए होंगे । खैर तो आज बात करेंगे आज के राजनीतिज्ञो की जिनका स्तर दिन पे दिन इस तरह से गिरता जा रहा है जैसे कोई नियाग्रा फाल हो ।
इंदिरा गाँधी ने कहा था गरीबी हटाओ, लेकिन आज यह नारा समाज के कुछ महान ओर सभ्य समझे जाने वाले राजनेताओ ने पलट कर गरीबो को हटाओ कर दिया है । यहाँ गरीब का पेट भरने के लिए २ वक्त की रोटी जुगाड़ना मुश्किल है, पहले से ही दाल और चीनी के भाव इतने ज्यादा बाद गए है की आम आदमी को आते दाल के भाव याद आ चुके है ।
खैर ये सब तो रोज़ का है , तो बात करते है आज की राजनीति के नूरे चश्म हमारे विदेश मंत्री - एस एम् कृष्ण की
सुनने में आया है की ये बहुत विलासिता पूर्वक अपना जीवन गुज़र रहे है , हाल ही में एक बुरी ख़बर जिसका आशय राजनेताओ से न की आम आदमी से , से पता चला है की कई सांसदों और मंत्रियो को फ्री की कोठिया (घर) नही मिल पाए जिसमे दो जाने माने नेताओ के नाम है एक है हमारे विदेश मंत्री एस एम् कृष्ण और दुसरे है विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर इन दो महानुभावो ने घर न मिल पाने की दशा में एक ऐसा कदम उठाया जो भारतीय राजनीती में सदा याद किया जाएगा ।
इन्होने आन्दोलन से भी बड़कर , धरने प्रदशन से भी बढ़कर , नुक्कड़ नाटको से हक मांगने से भी बढ़कर , सभाए करने से भी बढ़कर , गांधीगिरी से भी बढ़कर एक ऐसा करना कर दिखया है जिसे आज की भाषा में साइलेंट किलर वाला फार्मूला कहा जाए तो कोई औचित्य नही होगा ।
क्युकी ये दुनिया के ऐसे पहले ही लोग होंगे जिन्हें घर नही मिल पाने के कारण इतना ज्यादा विलासितापूर्ण जीवन मिला जितना की ये घर में होने के बाद भी नही बिता पाते ।
खैर जब घर नही मिला तो ये दोनों एक सस्ती सी होटल के शरणार्थी बन गए , सुना है जिस होटल में हमारे राजदुलारे विदेश मंत्री रुके थे उसका एक दिन का किराया इतना सस्ता था की जिसमे दिल्ली के साईकिल रिक्शा चलाने वाले जितने भी लोग है उनका साल का खाने पिने का खर्चा निकल जाता , होटल का किराया था १ लाख रुपए रोजाना .......... आगया न सुनकर हार्ट अटेक मुझे भी आगया था वो तो भला हो जो मेरे हॉस्टल के पास में एम्स हॉस्पिटल है जिसने मुझे ये एहसास करवा दिया की- अभी हम जिन्दा है.............. डरने की बात नही है ।
इससे पता चलता है की देश की हालत एक ऐसे आदमी की तरह है जिसे ब्लड कैंसर है और वो अपने अन्तिम दिन गिन रहा हो । यहाँ एक गरीब के खाने के लिए रोटिया नही है , देश में बेरोज़गारी बढती जारही है , पड़ोसी देश की सीमओं में घुसे चले आरहे है , देश की अर्थव्यवस्था तेज़ी से गिरती जा रही है , लेकिन ये लोग मानने को तैयार ही नही है क्या करे .......
वैसे प्रणब दादा ने कुछ समझाइश दी है की हद हो गई अब इतनी भी अति मत करो की जनता जूते मारे लेकिन ये कहा समझने वाले थे ये कह कर पल्ला झाड़ लिया की ये तो हमारे निजी खर्चे से है ......... हा हा वो तो दिख ही रहा है आपका निजी खर्च । एक विदेश मंत्री की तनख्वाह ५० से ७० हज़ार महिना होती है जो सभीको पता है, तो ये एक लाख दिन का भाडा कहा से आया । खैर जनता इतनी भी बेवकूफ नही है की उससे १९७० के फोर्मुले से बेवकूफ बनाया जा सके ....
यहाँ पर जगजीत सिंह की एक फेमस ग़ज़ल याद आती जो इस कांड पर पूरी तरह बैठती है
आपको देख कर देखता रह गया
क्या कहू और कहने को क्या रह गया
ऐसे बिछडे हम - तुम होटल के मोड़ पर
आखरी हम सफर रास्ता रह गया ।
इस समय दिल्ली में ज़ेरे बहस ये मुद्दा ।
दुष्यंत कुमार के इस फेमस शेर से तो सभी वाकिफ है , और जो वाकिफ नही है अपनी कुछ गलतियों की वजह से वो अब हो ही गए होंगे । खैर तो आज बात करेंगे आज के राजनीतिज्ञो की जिनका स्तर दिन पे दिन इस तरह से गिरता जा रहा है जैसे कोई नियाग्रा फाल हो ।
इंदिरा गाँधी ने कहा था गरीबी हटाओ, लेकिन आज यह नारा समाज के कुछ महान ओर सभ्य समझे जाने वाले राजनेताओ ने पलट कर गरीबो को हटाओ कर दिया है । यहाँ गरीब का पेट भरने के लिए २ वक्त की रोटी जुगाड़ना मुश्किल है, पहले से ही दाल और चीनी के भाव इतने ज्यादा बाद गए है की आम आदमी को आते दाल के भाव याद आ चुके है ।
खैर ये सब तो रोज़ का है , तो बात करते है आज की राजनीति के नूरे चश्म हमारे विदेश मंत्री - एस एम् कृष्ण की
सुनने में आया है की ये बहुत विलासिता पूर्वक अपना जीवन गुज़र रहे है , हाल ही में एक बुरी ख़बर जिसका आशय राजनेताओ से न की आम आदमी से , से पता चला है की कई सांसदों और मंत्रियो को फ्री की कोठिया (घर) नही मिल पाए जिसमे दो जाने माने नेताओ के नाम है एक है हमारे विदेश मंत्री एस एम् कृष्ण और दुसरे है विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर इन दो महानुभावो ने घर न मिल पाने की दशा में एक ऐसा कदम उठाया जो भारतीय राजनीती में सदा याद किया जाएगा ।
इन्होने आन्दोलन से भी बड़कर , धरने प्रदशन से भी बढ़कर , नुक्कड़ नाटको से हक मांगने से भी बढ़कर , सभाए करने से भी बढ़कर , गांधीगिरी से भी बढ़कर एक ऐसा करना कर दिखया है जिसे आज की भाषा में साइलेंट किलर वाला फार्मूला कहा जाए तो कोई औचित्य नही होगा ।
क्युकी ये दुनिया के ऐसे पहले ही लोग होंगे जिन्हें घर नही मिल पाने के कारण इतना ज्यादा विलासितापूर्ण जीवन मिला जितना की ये घर में होने के बाद भी नही बिता पाते ।
खैर जब घर नही मिला तो ये दोनों एक सस्ती सी होटल के शरणार्थी बन गए , सुना है जिस होटल में हमारे राजदुलारे विदेश मंत्री रुके थे उसका एक दिन का किराया इतना सस्ता था की जिसमे दिल्ली के साईकिल रिक्शा चलाने वाले जितने भी लोग है उनका साल का खाने पिने का खर्चा निकल जाता , होटल का किराया था १ लाख रुपए रोजाना .......... आगया न सुनकर हार्ट अटेक मुझे भी आगया था वो तो भला हो जो मेरे हॉस्टल के पास में एम्स हॉस्पिटल है जिसने मुझे ये एहसास करवा दिया की- अभी हम जिन्दा है.............. डरने की बात नही है ।
इससे पता चलता है की देश की हालत एक ऐसे आदमी की तरह है जिसे ब्लड कैंसर है और वो अपने अन्तिम दिन गिन रहा हो । यहाँ एक गरीब के खाने के लिए रोटिया नही है , देश में बेरोज़गारी बढती जारही है , पड़ोसी देश की सीमओं में घुसे चले आरहे है , देश की अर्थव्यवस्था तेज़ी से गिरती जा रही है , लेकिन ये लोग मानने को तैयार ही नही है क्या करे .......
वैसे प्रणब दादा ने कुछ समझाइश दी है की हद हो गई अब इतनी भी अति मत करो की जनता जूते मारे लेकिन ये कहा समझने वाले थे ये कह कर पल्ला झाड़ लिया की ये तो हमारे निजी खर्चे से है ......... हा हा वो तो दिख ही रहा है आपका निजी खर्च । एक विदेश मंत्री की तनख्वाह ५० से ७० हज़ार महिना होती है जो सभीको पता है, तो ये एक लाख दिन का भाडा कहा से आया । खैर जनता इतनी भी बेवकूफ नही है की उससे १९७० के फोर्मुले से बेवकूफ बनाया जा सके ....
यहाँ पर जगजीत सिंह की एक फेमस ग़ज़ल याद आती जो इस कांड पर पूरी तरह बैठती है
आपको देख कर देखता रह गया
क्या कहू और कहने को क्या रह गया
ऐसे बिछडे हम - तुम होटल के मोड़ पर
आखरी हम सफर रास्ता रह गया ।
Tuesday, September 8, 2009
मकसद ??
आखिर ये मकसद है क्या ?? ये किस चिडिया का नाम है ? वैसे कई जाने माने लोग जिनकी बातें हमे मजबूरी में मानना पड़ती है क्युकी वो जाने माने लोग होते है, उनका कहना है की मकसद वो चीज़ है जो हर किसी के जीवन में एक होता है हालाकि ये लोग जाने माने कब बने ये तो एक कठिन प्रश्न है जिसका उत्तर हर बच्चा जानना चाहता है जब वो अपनी बाल्यावस्था में होता है ..............
खैर जहाँ तक मेने मकसद को समझा है ओर महसूस किया है वो ये है की किसी के भी जीवन में एक मकसद नही होता है ....... हर क्षण हमारे जीवन में मकसदों की संख्या बढती ही जाती है ........... उदाहरण के तौर पर जब एक कुत्ता पैदा होता है तो सबसे पहले रोटी के लिए संघर्ष करता है फ़िर जब वो बड़ा होता है तो अपने क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए संघर्ष करता है , लघुशंका जाने के लिए कही से भी कोई गाड़ी जुगाड़ने के लिए संघर्ष में रहता है उसके बाद जब वो ज्यादा अपना कुत्ता धर्म निभाने की कोशिश करता है तो लोगो के द्वारा उससे इतनी लाठिया पड़ती है की उसका मकसद वीरगति को प्राप्त कर चुका होता है ।
खैर ये तो बात हुई कुत्तो की पर हम तो एको महान प्रजाति इंसान की बात करते है इन कुत्तो में में हम क्यो अपना समय बरबाद करे तो बात करते है इंसान की जब एक छोटा सा बच्चा पैदा होता है तो वह उसका मकसद होता है उससे कैसे भी करके अपने लिए दूध का मकसद पूरा करना फ़िर जैसे जैसे वो बड़ा होता है उसके मकसदों की संख्या भी बढती जाती है । थोड़ा बड़ा होता है तो उसे अपने टीवी देखने के मकसद को पूरा करना होता है । जब वो बड़ा होता है तो पाठशाला में अपने पड़ने के मकसद को पूरा करता है । लेकिन जब कॉलेज में पहुचता है तो वो कॉलेज में ३ साल गुजरने के लिए एक मकसद धुन्धता है मतलब की एक गर्ल फ्रेंड की तलाश करता है । एक भक्त रोज़ हनुमान चालीसा का पाठ करता है ओर यही उसका मकसद है ब्रम्हचर्य हलाकि कुछ भक्त ये मकसद केवल मंगलवार को ही निभाते नज़र आते है ओर बाकि समय लड़किया छेड़ते हुए दुसरे मकसद पूरा करते है । कुछ अपना मकसद अपने सपनो में खोजते है जो की कभी पूरा होता दिखाई नही देता है क्युकी हमेह्सा कोई न कोई उन्हें नींद में से लात मार के उठाता ही है ओर फ़िर हम उससे गलिया देने के अपने मकसद को पूरा करते है । कई लोग लव मेरिज को अपना मकसद समझते है ओअर प्यार को जिंदगी का एक मात्र मकसद ओर निकल पड़ते है अपनी फटफटी पर लड़कियों को छेड़ने ओर फ़िर मोहोल्ले वाले उन्हें पीट कर अपना मकसद पूरा करते है ।
खैर ये मकसद को समझने के लिए तो बहुत महनत करनी पड़ेगी । क्युकी मुझे ही अभी तक मेरा मकसद का पता नही चला वैसे एक तो ये मकसद बड़ी अच्छी चीज़ है कम से कम हम कुछ करते तो है चाहे चोरी ही कर क्युकी चोर की लिए तो वेअही मकसद है न उसके जीने का वैसे हर किसी का एक न एक मकसद होता है मेरा भी मुझे जब पता चल जाएगा तो आपको जरुर बताऊंगा ।
हजारो मकसद ऐसे की हर मकसद पे दम निकले
बहुत निकले मेरे मकसद लेकिन फ़िर भी कम निकले
मकसद में नही है फर्क जीने और मरने का
कही ऐसा न होयहाँ भी वही मकसद सनम निकले
खैर जहाँ तक मेने मकसद को समझा है ओर महसूस किया है वो ये है की किसी के भी जीवन में एक मकसद नही होता है ....... हर क्षण हमारे जीवन में मकसदों की संख्या बढती ही जाती है ........... उदाहरण के तौर पर जब एक कुत्ता पैदा होता है तो सबसे पहले रोटी के लिए संघर्ष करता है फ़िर जब वो बड़ा होता है तो अपने क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए संघर्ष करता है , लघुशंका जाने के लिए कही से भी कोई गाड़ी जुगाड़ने के लिए संघर्ष में रहता है उसके बाद जब वो ज्यादा अपना कुत्ता धर्म निभाने की कोशिश करता है तो लोगो के द्वारा उससे इतनी लाठिया पड़ती है की उसका मकसद वीरगति को प्राप्त कर चुका होता है ।
खैर ये तो बात हुई कुत्तो की पर हम तो एको महान प्रजाति इंसान की बात करते है इन कुत्तो में में हम क्यो अपना समय बरबाद करे तो बात करते है इंसान की जब एक छोटा सा बच्चा पैदा होता है तो वह उसका मकसद होता है उससे कैसे भी करके अपने लिए दूध का मकसद पूरा करना फ़िर जैसे जैसे वो बड़ा होता है उसके मकसदों की संख्या भी बढती जाती है । थोड़ा बड़ा होता है तो उसे अपने टीवी देखने के मकसद को पूरा करना होता है । जब वो बड़ा होता है तो पाठशाला में अपने पड़ने के मकसद को पूरा करता है । लेकिन जब कॉलेज में पहुचता है तो वो कॉलेज में ३ साल गुजरने के लिए एक मकसद धुन्धता है मतलब की एक गर्ल फ्रेंड की तलाश करता है । एक भक्त रोज़ हनुमान चालीसा का पाठ करता है ओर यही उसका मकसद है ब्रम्हचर्य हलाकि कुछ भक्त ये मकसद केवल मंगलवार को ही निभाते नज़र आते है ओर बाकि समय लड़किया छेड़ते हुए दुसरे मकसद पूरा करते है । कुछ अपना मकसद अपने सपनो में खोजते है जो की कभी पूरा होता दिखाई नही देता है क्युकी हमेह्सा कोई न कोई उन्हें नींद में से लात मार के उठाता ही है ओर फ़िर हम उससे गलिया देने के अपने मकसद को पूरा करते है । कई लोग लव मेरिज को अपना मकसद समझते है ओअर प्यार को जिंदगी का एक मात्र मकसद ओर निकल पड़ते है अपनी फटफटी पर लड़कियों को छेड़ने ओर फ़िर मोहोल्ले वाले उन्हें पीट कर अपना मकसद पूरा करते है ।
खैर ये मकसद को समझने के लिए तो बहुत महनत करनी पड़ेगी । क्युकी मुझे ही अभी तक मेरा मकसद का पता नही चला वैसे एक तो ये मकसद बड़ी अच्छी चीज़ है कम से कम हम कुछ करते तो है चाहे चोरी ही कर क्युकी चोर की लिए तो वेअही मकसद है न उसके जीने का वैसे हर किसी का एक न एक मकसद होता है मेरा भी मुझे जब पता चल जाएगा तो आपको जरुर बताऊंगा ।
हजारो मकसद ऐसे की हर मकसद पे दम निकले
बहुत निकले मेरे मकसद लेकिन फ़िर भी कम निकले
मकसद में नही है फर्क जीने और मरने का
कही ऐसा न होयहाँ भी वही मकसद सनम निकले
Monday, September 7, 2009
मेरा लख्तेजिगर और उसकी बाबा ब्लैक शिप
पोथी - पोथी बछुआ पढ़या न मिलिया कोई
ढाई आखर अंग्रेजी का रटे सो इंटेलिजेंट होई ।
क्या कभी कोई नौकरानी को अपनी माँ से बदला जा सकता है ???......... सोचने वाली बात है पर हमे तो ऐसा पिछले ६० सालो से करते आ रहें है ओर आश्चर्य की बात तो ये है की बिना किसी पछतावे के .... हमने अपनी माँ हिन्दी को बड़ी आसानी से नौकरानी अंग्रेजी से बदल दिया ..... ओर हमारी ही मात्रभाषा हिन्दी की हालत एक एसे मरीज़ की तरह होगई है जो स्वाइन फ्लू की लास्ट स्टेज में आ चुका हो जो बखूभी जनता हो की उसकी मौत शान भर में ही होने वाली है ।
बच्चो की स्कूल तो शुरू हो ही चुके है जैसा की आप देख सकते है रोज़ बहुत से एकलव्य अपना १०किलो से भरा झोला टांगे (पढाई की दुकान) कॉन्वेंट ओर पब्लिक स्कूल में जाते दिखाई देते है .........
हमारी सरकार ने जिसतरह शिक्षा के शेत्र में निजीकरण का रास्ता अपनाया है वह हमे एक गहरी खाई की तरफ़ ले जाएगा जहा से निकलना मुश्किल हो जाएगा .....
शिक्षा के क्षेत्र में किया गया ये निजीकरण ने सरकारी स्कुलो ओर प्राइवेट स्कुलो के बच्चो के बीच एक ऐसा अवसाद पैदा किया हुआ है जिससे अंग्रेजी न जाने वाला बच्चा आसानी से हीन भावना का शिकार हो जाता है।
आज हमारा लख्तेजिगर ( जिगर का टुकडा ) जब बाबा ब्लैक शिप की पोएम सुनाता है तो उसके बाप का सीना गर्व से चौडा हो जाता है, वही बाप जिसके बाप का सीना गर्व से जब चौडा हुआ था जब उसने मछली जल की रानी है कविता अपने बच्चे के मुह से सुनी थी । आज के लाख्तेजिगारो को ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार ओर जिंगल बेल तो बखूबी याद है ये लेकीन उन से यदि आपने किसी हिन्दी कविता के बारे में पुछा तो वो गर्व से कहेगा की में इग्लिश मीडियम में पड़ता हूँ , ओर मच्दोनाल्ड में बुर्गेर खता हु नही की किसी ठेले पर सडी हुई पानी पुरी , में ब्रिस्लेरी का चिल्ड वाटर पीटा हु नही की किसी नल पर मुह लगा कर पानी पीता हु , में भगत सिंह नही कूल डूड बनना चाहता हु ।
आम बोलचाल की भाषा हिन्दी होने के बावजूद भी मात्रभाषा को इतना अपमान सहना पद्रह है । वो संसद जो हमारे गरीबो से हिन्दी में वोट मांगने आते है वो गरीबी संसद में इंग्लिश में क्यों डिसकस करते है, वो क्रिकेटर के बारे में आपका क्या ख्याल है जो हिन्दी के टुकडो में पल कर सारा दिन इंग्लिश में ही बात करते है .... शायद ग्लोब्लिज़शन का ज़माना है , पश्चिमी सभ्यता को गर्व से अपनाया है तो ये सब तो गर्व से सहना ही पड़ेगा ।
खैर हिन्दी तो आई सी यू मै भरती हो गई बस उसके दिल की धड़कन बंद करने का इंतजार कर सकते है हम तो अपनी आंखे मूंद कर ..... करने को तो बहुत किया जा सकता है लेकिन हमारे राजनेताओ मे भी तो इच्छाशक्ति की कमी है न ये बस खाना जानते है ओर डकारना ....
समाज मे जो दो तरह के वर्ग तैयार हो रहे है वह आने वाली हमारी भावी पीढी को एक ऐसी सामाजिक विषमता की और ले जाएगा जहा से हमारा भारत दो अलग तरह की जातियों मे विभाजित हो जाएगा एक तो सरकारी स्कूल से पड़ने वाली ओर दूसरी कॉन्वेंट स्कूल वाली । खैर ये इंडिया और भारत के बीच का फर्क है इससे पार पाना बड़ा मुश्किल है जहा लोगो को सिर्फ़ अपने काम से मतलूब है देश के बारे मे सोचने वाली भावी पीढी जिसकी नेहरू ने कल्पना की थी वो तो अधर मे लटकी हुई है ।
मारवाडी मे एक काफी चर्चित कहावत है - दुनिया जावे भाड़ जोतने
आपने कई करनो।
ढाई आखर अंग्रेजी का रटे सो इंटेलिजेंट होई ।
क्या कभी कोई नौकरानी को अपनी माँ से बदला जा सकता है ???......... सोचने वाली बात है पर हमे तो ऐसा पिछले ६० सालो से करते आ रहें है ओर आश्चर्य की बात तो ये है की बिना किसी पछतावे के .... हमने अपनी माँ हिन्दी को बड़ी आसानी से नौकरानी अंग्रेजी से बदल दिया ..... ओर हमारी ही मात्रभाषा हिन्दी की हालत एक एसे मरीज़ की तरह होगई है जो स्वाइन फ्लू की लास्ट स्टेज में आ चुका हो जो बखूभी जनता हो की उसकी मौत शान भर में ही होने वाली है ।
बच्चो की स्कूल तो शुरू हो ही चुके है जैसा की आप देख सकते है रोज़ बहुत से एकलव्य अपना १०किलो से भरा झोला टांगे (पढाई की दुकान) कॉन्वेंट ओर पब्लिक स्कूल में जाते दिखाई देते है .........
हमारी सरकार ने जिसतरह शिक्षा के शेत्र में निजीकरण का रास्ता अपनाया है वह हमे एक गहरी खाई की तरफ़ ले जाएगा जहा से निकलना मुश्किल हो जाएगा .....
शिक्षा के क्षेत्र में किया गया ये निजीकरण ने सरकारी स्कुलो ओर प्राइवेट स्कुलो के बच्चो के बीच एक ऐसा अवसाद पैदा किया हुआ है जिससे अंग्रेजी न जाने वाला बच्चा आसानी से हीन भावना का शिकार हो जाता है।
आज हमारा लख्तेजिगर ( जिगर का टुकडा ) जब बाबा ब्लैक शिप की पोएम सुनाता है तो उसके बाप का सीना गर्व से चौडा हो जाता है, वही बाप जिसके बाप का सीना गर्व से जब चौडा हुआ था जब उसने मछली जल की रानी है कविता अपने बच्चे के मुह से सुनी थी । आज के लाख्तेजिगारो को ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार ओर जिंगल बेल तो बखूबी याद है ये लेकीन उन से यदि आपने किसी हिन्दी कविता के बारे में पुछा तो वो गर्व से कहेगा की में इग्लिश मीडियम में पड़ता हूँ , ओर मच्दोनाल्ड में बुर्गेर खता हु नही की किसी ठेले पर सडी हुई पानी पुरी , में ब्रिस्लेरी का चिल्ड वाटर पीटा हु नही की किसी नल पर मुह लगा कर पानी पीता हु , में भगत सिंह नही कूल डूड बनना चाहता हु ।
आम बोलचाल की भाषा हिन्दी होने के बावजूद भी मात्रभाषा को इतना अपमान सहना पद्रह है । वो संसद जो हमारे गरीबो से हिन्दी में वोट मांगने आते है वो गरीबी संसद में इंग्लिश में क्यों डिसकस करते है, वो क्रिकेटर के बारे में आपका क्या ख्याल है जो हिन्दी के टुकडो में पल कर सारा दिन इंग्लिश में ही बात करते है .... शायद ग्लोब्लिज़शन का ज़माना है , पश्चिमी सभ्यता को गर्व से अपनाया है तो ये सब तो गर्व से सहना ही पड़ेगा ।
खैर हिन्दी तो आई सी यू मै भरती हो गई बस उसके दिल की धड़कन बंद करने का इंतजार कर सकते है हम तो अपनी आंखे मूंद कर ..... करने को तो बहुत किया जा सकता है लेकिन हमारे राजनेताओ मे भी तो इच्छाशक्ति की कमी है न ये बस खाना जानते है ओर डकारना ....
समाज मे जो दो तरह के वर्ग तैयार हो रहे है वह आने वाली हमारी भावी पीढी को एक ऐसी सामाजिक विषमता की और ले जाएगा जहा से हमारा भारत दो अलग तरह की जातियों मे विभाजित हो जाएगा एक तो सरकारी स्कूल से पड़ने वाली ओर दूसरी कॉन्वेंट स्कूल वाली । खैर ये इंडिया और भारत के बीच का फर्क है इससे पार पाना बड़ा मुश्किल है जहा लोगो को सिर्फ़ अपने काम से मतलूब है देश के बारे मे सोचने वाली भावी पीढी जिसकी नेहरू ने कल्पना की थी वो तो अधर मे लटकी हुई है ।
मारवाडी मे एक काफी चर्चित कहावत है - दुनिया जावे भाड़ जोतने
आपने कई करनो।
Friday, September 4, 2009
भारतीय जिन्ना पार्टी
जसवंत और जिन्ना ...
इस समय दिल्ली में जेरे बह्स है ये मुद्दा ............
काफी दिनों से भारतीय राजनीती में चल रही हल - चल जिससे मेक्डोनाल्ड ओर पिज्जा हट के बर्गर खाने वाली जनजातीय तो बेखबर है , परन्तु मेरे जैसा शुद्ध दल - रोटी खाने वाला आदमी इस बहस से कैसे दूर रह सकता है | तो कहानी की शुरुवात यहाँ से होती है की अपनी सेना ( भारतीय जनता पार्टी ) के हनुमान जसवंत सिंह अचानक से रावण बन जाते है , इसकी शुरुवात होती ख़ुद की लिखी अपनी एक अनोखी रामायण जिसका आधुनिक नाम है - भारत विभाजन जिन्ना के आईने में ................. से हुई है |
वैसे तो ये भारत विभाजन का मामला बड़ा पेचीदा है इस विषय पर बरसो से कई बड़े बड़े इतिहासकार अपना सर फोड़ते आ रहें है फ़िर भी जसवंत सिंह ने सोचा चलो में भी एक बार इस महान कृत्य में अपना सर फुडवा कर देखू , पर वो भूल गए की जो गलती आडवानी ने पाकिस्तान में जिन्ना की कब्र पे फूल चढाते समय की थी उससे दूसरी बार में दोहरा कर क्या हासिल होगा?.......मुस्लिमो के चंद वोट ??? ये हिन्दुत्व के आटे में बनाई गई रोटी है इतनी जल्दी नही पकने वाली ............. जसवंत साहेब ।
वैसे तो जसवंत सिंह काफी काबिल नेता उनकी काबिलियत पे शक करना तो अपने मुह पर कीचड़ उछालने जैसा होगा ... उनकी काबिलियत से ही बीजेपी को पश्चिम बंगाल में एक लोकसभा सीट मिली है वरना बंगाल में सीट लाना कोई मजाक है भला|
फ़िर भी उनकी काबिलियत पे शक करके उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया .... खैर काम ही ऐसा किया था ना। एक तो पार्टी अपना एजेंडा ही हिन्दुत्व हो जो आर. एस. एस जैसे हिंदू पार्टी का हिंदू राष्ट्र का सपना हो उसमे ऍसी छिछोरी हरकते भला कौन बर्दाश्त करे???
खैर दिन पे दिन अपनी इज्ज़त गवाती जा रही बीजेपी के लिए तो एक झटका ही है जो पार्टी पिछले कुछ सालो से मजबूत थी अब उसमे फ़ुट पड़ती जा रही है । दिन पे दिन कोई नया सुरमा आकर पार्टी के नेत्रत्व का दावा करने लगता है । ऊपर से जसवंत ने भी झटका दे लिया पार्टी नेताओ के लाख मन करने के बाद भी अपनी पुस्तक का विमोचन कर डाला। फ़िर होना क्या चुप चाप बिना जसवंत सिंह को कोई नोटिस दिए उन्हें पार्टी से निष्कासित करदिया गया। अब बिचारे इधर उधर घूम कर अपना हक मांग रहें है गुजरात जैसे राज्यों में तो उनकी पुस्तक पर बैन लगा दिया गया ...
वैसे कुछ पार्टी परस्त लोग इस बात से खासे चिडे नज़र आ रहें है की उनके चेले जसवंत सिंह को सिर्फ़ इसलिए निकल दिया की उन्नोने पार्टी की सोच से अलग अपनी सोच का एक छोटा सा नमूना पेश किया । खैर ये भारतीय जनता पार्टी में पिछले कुछ दिनों से जो जिन्ना विवाद चल रहा है उससे इन्हे भारतीय जिन्ना पार्टी कहने में कोई आतिशयोक्ति नही होगी । क्युकी जिन्ना का जिन् अपने चिराग से निकल कर बीजेपी ओर आर एस एस के नेताओ की छातियों पर लोट रहा है । कहने को ये सब आर एस एस का कियाधरा है पर बेचारे हमेशा की तरह मानने को तैयार ही नही है, खुल्ले आम मीटिंगे कर के सबको आश्चर्य चकित कर रहें है ।
खैर बेचारे जसवंत सिंह अपने ही देश में शरणार्थी बने है ओर पाकिस्तान के प्रार्थी बने है, और जा रहें है अपनी पार्टी के नेताओ की ............. पे लात देकत पाकिस्तान अपनी पुस्तक का विमोचन करने । अब करे भी तो क्या करे फ्री जो हो गए है तो चले कायदे आज़म का नाम रोशन करने ।
जिन्ना ने १९४७ के अपने एक भाषण में कहा था की आज से कई सालो बाद आप सब मुझे याद करोगे ....
हलाकि ये नही कहा था की इस तरह..................
खैर वो तो हम मज़बूरी में कर ही रहें है । जसवंत भइया की कृपा से .......
वैसे इतिहासकारों का कहना है की किताब में कोई नई बात नही है, फ़िर भी किताब तो बिकेगी कांड ही ऐसा हुआ है। खैर तो अब देखना होगा की ये भारतीय जिन्ना पार्टी अ..अ... मेरे कहने का मतलब है भारतीय जनता पार्टी कब तक जिन्ना का मुद्दा गरमाए रख पाती है ओर ये बीजेपी कब तक पूरी तरह से बिखरने में कामयाब हो पाती है , दिन पे दिन बिखरता विपक्ष देश की राजनीति के लिए खतरा हो सकता है , ये बात तो मनमोहन सिंह ने भी की लेकिन उनकी बीजेपी सुने कहाँ इसलिए में भी एक बार कह देता हू......
ऐसा न ही की कही जिन्ना के जिन् को चिराग से जबरदस्ती घिस कर निकलने की मशक्कत में कही बीजेपी में बिखराव नही पैदा होजाए जो बाद में एक गहरी खाई बन के उभरे ।
धीरे धीरे पार्टी अपने बड़े नेताओ का विश्वास खोटी ही जा रही है ओर दूसरी षेत्रीय पार्टिया इसका लाभ जरुर उठाना चाहेगी ... कही जसवंत सिंह दुसरे कल्याण सिंह बन कर न उभर जाए ।
भइया राजनीती में तो कुछ भी सम्भव है ............................
तो अंत में एक ही बात कहना चाहूँगा की .............
खेल भाई खेल राजनीती का खेल
कैसा गज़ब ये राजनीती का खेल
अरे शोरगुल जितना हो कानो में तेल
खेल भाई खेल राजनीती का खेल..............
इस समय दिल्ली में जेरे बह्स है ये मुद्दा ............
काफी दिनों से भारतीय राजनीती में चल रही हल - चल जिससे मेक्डोनाल्ड ओर पिज्जा हट के बर्गर खाने वाली जनजातीय तो बेखबर है , परन्तु मेरे जैसा शुद्ध दल - रोटी खाने वाला आदमी इस बहस से कैसे दूर रह सकता है | तो कहानी की शुरुवात यहाँ से होती है की अपनी सेना ( भारतीय जनता पार्टी ) के हनुमान जसवंत सिंह अचानक से रावण बन जाते है , इसकी शुरुवात होती ख़ुद की लिखी अपनी एक अनोखी रामायण जिसका आधुनिक नाम है - भारत विभाजन जिन्ना के आईने में ................. से हुई है |
वैसे तो ये भारत विभाजन का मामला बड़ा पेचीदा है इस विषय पर बरसो से कई बड़े बड़े इतिहासकार अपना सर फोड़ते आ रहें है फ़िर भी जसवंत सिंह ने सोचा चलो में भी एक बार इस महान कृत्य में अपना सर फुडवा कर देखू , पर वो भूल गए की जो गलती आडवानी ने पाकिस्तान में जिन्ना की कब्र पे फूल चढाते समय की थी उससे दूसरी बार में दोहरा कर क्या हासिल होगा?.......मुस्लिमो के चंद वोट ??? ये हिन्दुत्व के आटे में बनाई गई रोटी है इतनी जल्दी नही पकने वाली ............. जसवंत साहेब ।
वैसे तो जसवंत सिंह काफी काबिल नेता उनकी काबिलियत पे शक करना तो अपने मुह पर कीचड़ उछालने जैसा होगा ... उनकी काबिलियत से ही बीजेपी को पश्चिम बंगाल में एक लोकसभा सीट मिली है वरना बंगाल में सीट लाना कोई मजाक है भला|
फ़िर भी उनकी काबिलियत पे शक करके उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया .... खैर काम ही ऐसा किया था ना। एक तो पार्टी अपना एजेंडा ही हिन्दुत्व हो जो आर. एस. एस जैसे हिंदू पार्टी का हिंदू राष्ट्र का सपना हो उसमे ऍसी छिछोरी हरकते भला कौन बर्दाश्त करे???
खैर दिन पे दिन अपनी इज्ज़त गवाती जा रही बीजेपी के लिए तो एक झटका ही है जो पार्टी पिछले कुछ सालो से मजबूत थी अब उसमे फ़ुट पड़ती जा रही है । दिन पे दिन कोई नया सुरमा आकर पार्टी के नेत्रत्व का दावा करने लगता है । ऊपर से जसवंत ने भी झटका दे लिया पार्टी नेताओ के लाख मन करने के बाद भी अपनी पुस्तक का विमोचन कर डाला। फ़िर होना क्या चुप चाप बिना जसवंत सिंह को कोई नोटिस दिए उन्हें पार्टी से निष्कासित करदिया गया। अब बिचारे इधर उधर घूम कर अपना हक मांग रहें है गुजरात जैसे राज्यों में तो उनकी पुस्तक पर बैन लगा दिया गया ...
वैसे कुछ पार्टी परस्त लोग इस बात से खासे चिडे नज़र आ रहें है की उनके चेले जसवंत सिंह को सिर्फ़ इसलिए निकल दिया की उन्नोने पार्टी की सोच से अलग अपनी सोच का एक छोटा सा नमूना पेश किया । खैर ये भारतीय जनता पार्टी में पिछले कुछ दिनों से जो जिन्ना विवाद चल रहा है उससे इन्हे भारतीय जिन्ना पार्टी कहने में कोई आतिशयोक्ति नही होगी । क्युकी जिन्ना का जिन् अपने चिराग से निकल कर बीजेपी ओर आर एस एस के नेताओ की छातियों पर लोट रहा है । कहने को ये सब आर एस एस का कियाधरा है पर बेचारे हमेशा की तरह मानने को तैयार ही नही है, खुल्ले आम मीटिंगे कर के सबको आश्चर्य चकित कर रहें है ।
खैर बेचारे जसवंत सिंह अपने ही देश में शरणार्थी बने है ओर पाकिस्तान के प्रार्थी बने है, और जा रहें है अपनी पार्टी के नेताओ की ............. पे लात देकत पाकिस्तान अपनी पुस्तक का विमोचन करने । अब करे भी तो क्या करे फ्री जो हो गए है तो चले कायदे आज़म का नाम रोशन करने ।
जिन्ना ने १९४७ के अपने एक भाषण में कहा था की आज से कई सालो बाद आप सब मुझे याद करोगे ....
हलाकि ये नही कहा था की इस तरह..................
खैर वो तो हम मज़बूरी में कर ही रहें है । जसवंत भइया की कृपा से .......
वैसे इतिहासकारों का कहना है की किताब में कोई नई बात नही है, फ़िर भी किताब तो बिकेगी कांड ही ऐसा हुआ है। खैर तो अब देखना होगा की ये भारतीय जिन्ना पार्टी अ..अ... मेरे कहने का मतलब है भारतीय जनता पार्टी कब तक जिन्ना का मुद्दा गरमाए रख पाती है ओर ये बीजेपी कब तक पूरी तरह से बिखरने में कामयाब हो पाती है , दिन पे दिन बिखरता विपक्ष देश की राजनीति के लिए खतरा हो सकता है , ये बात तो मनमोहन सिंह ने भी की लेकिन उनकी बीजेपी सुने कहाँ इसलिए में भी एक बार कह देता हू......
ऐसा न ही की कही जिन्ना के जिन् को चिराग से जबरदस्ती घिस कर निकलने की मशक्कत में कही बीजेपी में बिखराव नही पैदा होजाए जो बाद में एक गहरी खाई बन के उभरे ।
धीरे धीरे पार्टी अपने बड़े नेताओ का विश्वास खोटी ही जा रही है ओर दूसरी षेत्रीय पार्टिया इसका लाभ जरुर उठाना चाहेगी ... कही जसवंत सिंह दुसरे कल्याण सिंह बन कर न उभर जाए ।
भइया राजनीती में तो कुछ भी सम्भव है ............................
तो अंत में एक ही बात कहना चाहूँगा की .............
खेल भाई खेल राजनीती का खेल
कैसा गज़ब ये राजनीती का खेल
अरे शोरगुल जितना हो कानो में तेल
खेल भाई खेल राजनीती का खेल..............
Saturday, April 18, 2009
एक लौ इस तरह क्यों बुझी मेरे मौला ??
गर्दिशो में रहती , बहती गुज़रती जिंदगी यहाँ है कितनी
इन में से एक है तेरी मेरी या नही
कोई एक जैसी अपनी , पर खुदा खैर कर ऐसा अंजाम
किसी रूह को न दे कभी यहाँ .............
बच्चा मुस्कुराता एक वक्त से पहले क्यों छोड़ चला तेरा ये जहाँ
एक लौ इस तरह क्यों बुझी मेरे मौला , एक लौ जिंदगी की मौला
ये गाने की लाइने जब भी पढता हूँ सच में रूह कांपने लगती है , रौंगटे खड़े होने लगते है .................. कल मेने अख़बार पढ़ा ओर मेरी नज़र एक ख़बर पर पड़ी ............ उसमे लिखा था की एक ११ साल की बच्ची को मास्टरनी ने धूप में खड़ा किया। उस मासूम बच्ची के कंधे पर ईट रखवा कर २ घंटे तपती धूप में खड़ा रखा । बाद में वो छोटी सी बच्ची इस कारन कोमा में चली गई ओर फ़िर उसकी मृत्यु हो गई ।
ये घटना है देहली के एक स्कूल की उस मास्टरनी का नाम मंजू है जिसके खिलाफ पहले तो कोई एक्शन नही लिया गया बाद में जब मीडिया के द्वारा दबाव डाला गया तब जाके उसके खिलाफ केस दर्ज हुआ । क्या हालत है हमारे देश की? क्या कसूर था उस मासूम का ? उसका नाम शन्नो था ये ?? या वो मासूम को ने कुछ सवालों के जवाब नही दिए इसलिए ?? पहले भी कुछ इस तरह की घटनाये सामने आई है लेकिन फ़िर भी इस तरह की घटनाये होना इतना लाज़मी है । क्या भारतीय शिक्षा हमे ये सिखाती है की सिर्फ़ मार पीट के ही बच्चो को सुधार जा सकता है??
क्या बच्चो को समझाना से कोई फर्क नही पड़ता ??
और क्यों इस तरह की मानसिकता वाले लोगो द्वारा शिक्षा दी जाती है? ये कहा तक सही है ???
इन सब के जवाब हमे कौन देगा सरकार?? वो तो हमेशा के तरह मुह फेर लेगी , तो क्या वो मास्टरनी जवाब देगी?? या फ़िर उस बच्ची के माता पिता जिनको अब कुछ कहने के लिए बचा नही है उन पर क्या बीत रही है वो तो वही समझ सकते है ..........
कब तक शिक्षा के विद पर मासूमो की बलि दी जाती रहेगी ???
आज मेने एक न्यूज़ चेनल पर देखा की बच्ची के लिए इंसाफ मांगने आए लोगो पर पुलिस लाठी चार्ज करती है ।
ये कहा का इन्साफ है ?? क्या अब इस देश से इंसाफ की उम्मीद करना भी एक ढकोसला है ??/
ऐसे कई सवाल जो आज हमारे दिमाग में चल रहे इसका जवाब कौन देगा ??
चलिए इस बात से हट के ५ मिनिट हम सोचते है आज के बच्चो के बारे में - अपने देखा ही होगा की बच्चो पर छोटी सी उम्र में ही पडी का कितना बोझ रहता है । हर बच्चे के बैग में आज १५ से २० कोपिया रोज़ भरी रहती है बच्चा जब बड़ा सा भारी बैग अपने छोटे छोटे कंधो पर लेकर चलता है तो ऐसा लगता है मनो कोई पर्वतारोही हो ।
बड़े बड़े मनोचिकित्सक भी कह चुके है की बच्चा जब तक ५ साल की उम्र पार नही कर लेता तब तक उससे स्कूल में भरती मर करिए । फ़िर भी पलक नही समझते है ओर बच्चो को कच्ची उम्र में ही स्कूल में भरती करवा देना ये आजकल एक शगुल सा बन गया है, आज कल के बच्चे स्कूल जाते है और आकर ३-४ घंटे अपना होमवर्क करते है खेलना तो जैसे आजकल बच्चो के लिए गुनाह हो गया है । क्युकी मेट्रो सिटी का तो यही कांसेप्ट है। क्या इतनी काची उम्र में बच्चो पर इतना बोझ डालना कहा तक सही है ?
क्या उनकी कोई भावनाए नही होती ??
इन सब सवालो का जवाब तो हम न जनकब से खोज रहे है लेकिन शन्नो जैसे बच्चो की बलि चढ़ जन के बाद भी हम नही सुदर सकते ।
अब क्या जरुरत थी उस शिक्षिका को एक मासूम सी फूल जैसे छोटी सी बाची को इतनी बुरी सजा देने की वो भी सिर्फ़ इसलिए की उससे इंग्लिश में कुछ ऐ बे सी डी नही आती थी अगर ये गुनाह है तो क्या हमे भारत के उन सभी बच्चो को मात देंगे जिनको ये - अंग्रेजी में अनाराम नही आते ???
ऐसे कई चीजे है जो अक्सर सवाल छोड़ जाती है हमारे लिए जिनका जवाब हम खोजना तो चाहते है पर नही खोज पाते यही हमारे यहाँ का दुर्भाग्य है ।
में पूछना चाहूँगा कब तक शिक्षा के विद पर मासूमो की बलि इस तरह दी जाती रहेगी???????????
मासूम कलियों की कीमत तुम क्या जानोगे
तुम्हारे आँगन में तो सीधे फूल खिलते है ।
इन में से एक है तेरी मेरी या नही
कोई एक जैसी अपनी , पर खुदा खैर कर ऐसा अंजाम
किसी रूह को न दे कभी यहाँ .............
बच्चा मुस्कुराता एक वक्त से पहले क्यों छोड़ चला तेरा ये जहाँ
एक लौ इस तरह क्यों बुझी मेरे मौला , एक लौ जिंदगी की मौला
ये गाने की लाइने जब भी पढता हूँ सच में रूह कांपने लगती है , रौंगटे खड़े होने लगते है .................. कल मेने अख़बार पढ़ा ओर मेरी नज़र एक ख़बर पर पड़ी ............ उसमे लिखा था की एक ११ साल की बच्ची को मास्टरनी ने धूप में खड़ा किया। उस मासूम बच्ची के कंधे पर ईट रखवा कर २ घंटे तपती धूप में खड़ा रखा । बाद में वो छोटी सी बच्ची इस कारन कोमा में चली गई ओर फ़िर उसकी मृत्यु हो गई ।
ये घटना है देहली के एक स्कूल की उस मास्टरनी का नाम मंजू है जिसके खिलाफ पहले तो कोई एक्शन नही लिया गया बाद में जब मीडिया के द्वारा दबाव डाला गया तब जाके उसके खिलाफ केस दर्ज हुआ । क्या हालत है हमारे देश की? क्या कसूर था उस मासूम का ? उसका नाम शन्नो था ये ?? या वो मासूम को ने कुछ सवालों के जवाब नही दिए इसलिए ?? पहले भी कुछ इस तरह की घटनाये सामने आई है लेकिन फ़िर भी इस तरह की घटनाये होना इतना लाज़मी है । क्या भारतीय शिक्षा हमे ये सिखाती है की सिर्फ़ मार पीट के ही बच्चो को सुधार जा सकता है??
क्या बच्चो को समझाना से कोई फर्क नही पड़ता ??
और क्यों इस तरह की मानसिकता वाले लोगो द्वारा शिक्षा दी जाती है? ये कहा तक सही है ???
इन सब के जवाब हमे कौन देगा सरकार?? वो तो हमेशा के तरह मुह फेर लेगी , तो क्या वो मास्टरनी जवाब देगी?? या फ़िर उस बच्ची के माता पिता जिनको अब कुछ कहने के लिए बचा नही है उन पर क्या बीत रही है वो तो वही समझ सकते है ..........
कब तक शिक्षा के विद पर मासूमो की बलि दी जाती रहेगी ???
आज मेने एक न्यूज़ चेनल पर देखा की बच्ची के लिए इंसाफ मांगने आए लोगो पर पुलिस लाठी चार्ज करती है ।
ये कहा का इन्साफ है ?? क्या अब इस देश से इंसाफ की उम्मीद करना भी एक ढकोसला है ??/
ऐसे कई सवाल जो आज हमारे दिमाग में चल रहे इसका जवाब कौन देगा ??
चलिए इस बात से हट के ५ मिनिट हम सोचते है आज के बच्चो के बारे में - अपने देखा ही होगा की बच्चो पर छोटी सी उम्र में ही पडी का कितना बोझ रहता है । हर बच्चे के बैग में आज १५ से २० कोपिया रोज़ भरी रहती है बच्चा जब बड़ा सा भारी बैग अपने छोटे छोटे कंधो पर लेकर चलता है तो ऐसा लगता है मनो कोई पर्वतारोही हो ।
बड़े बड़े मनोचिकित्सक भी कह चुके है की बच्चा जब तक ५ साल की उम्र पार नही कर लेता तब तक उससे स्कूल में भरती मर करिए । फ़िर भी पलक नही समझते है ओर बच्चो को कच्ची उम्र में ही स्कूल में भरती करवा देना ये आजकल एक शगुल सा बन गया है, आज कल के बच्चे स्कूल जाते है और आकर ३-४ घंटे अपना होमवर्क करते है खेलना तो जैसे आजकल बच्चो के लिए गुनाह हो गया है । क्युकी मेट्रो सिटी का तो यही कांसेप्ट है। क्या इतनी काची उम्र में बच्चो पर इतना बोझ डालना कहा तक सही है ?
क्या उनकी कोई भावनाए नही होती ??
इन सब सवालो का जवाब तो हम न जनकब से खोज रहे है लेकिन शन्नो जैसे बच्चो की बलि चढ़ जन के बाद भी हम नही सुदर सकते ।
अब क्या जरुरत थी उस शिक्षिका को एक मासूम सी फूल जैसे छोटी सी बाची को इतनी बुरी सजा देने की वो भी सिर्फ़ इसलिए की उससे इंग्लिश में कुछ ऐ बे सी डी नही आती थी अगर ये गुनाह है तो क्या हमे भारत के उन सभी बच्चो को मात देंगे जिनको ये - अंग्रेजी में अनाराम नही आते ???
ऐसे कई चीजे है जो अक्सर सवाल छोड़ जाती है हमारे लिए जिनका जवाब हम खोजना तो चाहते है पर नही खोज पाते यही हमारे यहाँ का दुर्भाग्य है ।
में पूछना चाहूँगा कब तक शिक्षा के विद पर मासूमो की बलि इस तरह दी जाती रहेगी???????????
मासूम कलियों की कीमत तुम क्या जानोगे
तुम्हारे आँगन में तो सीधे फूल खिलते है ।
कृपया पत्रकार गण से निवेदन है की जूते- चप्पल बाहर उतार कर प्रवेश करे
शाना जूता कुछ नही कहता
पड़ते फ़िर क्यों हो हल्ला होता
चलिए आप तो जानते ही है किस तरह कुछ दिनों से जूता फेकने का कुछ नया चलन चल गया है । इसकी शुरुवात कुछ समय पहले हुई जब बुश पर एक जूता फेका गया ...............
बेचारे सैम अंकल - जब इराक पर कब्जा किया था तब जब सद्दाम हुसैन की मूर्ति को लोग जूते मार कर गिरा रहे थे तब हमारे सैम अंकल ने कहा था की जूते का नम्बर १० था । वह बुश साहब क्या अपने गौर किया की जो जूता आपके ऊपर पड़ा था उसका नम्बर क्या था ?? तब तो आप इसे भागे जैसे किसी कुत्ते को आपके पीछे छु करवा दिया हो ।
ये तो बात थी हमारे सैम अंकल की। उसके बाद तो मानो जूते फेकने का कोई फैशन शुरू हो गया हो ....... कई लोग तो जूतों की बढ़िया क्वालिटी के लिए दुकानों पर दर-दर भटकते दिखाई दिए की कही से ऐसा जूता तो मिले जो किसी न किसी के नाक तोड़ सके ।
बुश के बाद बरी आई चाइना के प्राइम मिनिस्टर की जिन पर लन्दन में जूता फेका गया । बेचारे कर भी क्या सकते थे उनके देश में किसी ने फेका होता तो बिचारा किसी कोठरी में पड़े पड़े अपने अन्तिम दिन गिन रहा होता ..............
उसके बाद कुछ छुट पुट घटनाये होती रही लेकिन भारत ने भी सोचा चलो हम भी शुरू हो जाए पर मरे किसको ...........
तभी कांग्रेस ने एक बहुत बड़ी गलती कर दी अपने को सबसे बड़ी सेकुलर पार्टी कहने वाली कांग्रेस के मुह पर तब तमाचा पड़ा जब उसने १९८४ में सिक्ख दंगे भड़काने वाले टाईटलर को ही लोकसभा टिकिट दे दिया ये कहा का इंसाफ है????
अपने वोट बैंक टाईट करने के लिए आपको क्या टाईटलर ही मिला क्या ????????//
फ़िर होना क्या था एक हमारा सिक्ख भाई भावनाओ में बह गया ओर उठाया मस्त जूता ओर दे मारा चिदंबरम पर
और कांग्रेस तो ठहरी उदारवादी उसने तो माफ़ भी कर दिया । हां हां माफ़ क्यों नही करोगे इतनी बड़ी गलती जो आपने की है उसके सामने तो येछोटी ही बात है ।
में भी सोचने लगा में किसको मारू???? अरे पर क्या जूता मरने से ये कौन सी हमारी मांगे मांग लेंगे ।
में भी अपनी एक लिस्ट तैयार करने में लगा हूँ । क्युकी मौका देख के चौका तो हम भी मर सकते है न
अब ये पोलितिशन बाज़ तो आने से रहे ओर भारत में तो जूता मरना कोई इतनी बड़ी बात भी नही है किसी भी गईमें चले जाओ कोई न कोई पीड़ित पति अपने पत्नी कोई जूते से पीटता ही मिलेगा ।
अब ये सरकार देश में बेरोज़गारी दूर करने से तो रही तो अगर हर बेरोजगार व्यक्ति एक एक जूता भी मरने लगा तो एक जूतों का कारखाना लगाया जन सकता है ।
खैर इन सबकों से भी अगर सरकार ने कुछ सिखा तो वो ये नही की देश का कुछ भला करे सीखा की देश में जूते के कारखानों का पता लगाया जाए ओर कड़क कुँलिटी का जूता बनने वालो पर रोक लगा दी जाए ।
अरे आप कितने लोगो कोई जूते मरने से रोकोगे अगर देश की जनता एक जुट हो गई न दिन भर जूते ही खाते नज़र आओगे ...........
खैर अगर कोई नेता इसे पड़े तो माफ़ी चाहूँगा भइया नही तो कही हमे घर से उठवा लिया तो हमे तो नेताओ से बड़ा डर लगता है भइया ..................... में तो छोटा सा नन्हा सा बच्चा हु मुझे कुछ करना मत ...................
चलो अगर जिन्दा रहे तो फ़िर मिलेंगे नही तो हरिद्वार में मिलेगे ।
लेकिन आप तो लिखते ही रहना इस देश में होने वाले हर ग़लत काम के खिलाफ .................
हा पर आचे क्वालिटी के जूते खरीदना मत भूलियेगा
वंदे मातरम
पड़ते फ़िर क्यों हो हल्ला होता
चलिए आप तो जानते ही है किस तरह कुछ दिनों से जूता फेकने का कुछ नया चलन चल गया है । इसकी शुरुवात कुछ समय पहले हुई जब बुश पर एक जूता फेका गया ...............
बेचारे सैम अंकल - जब इराक पर कब्जा किया था तब जब सद्दाम हुसैन की मूर्ति को लोग जूते मार कर गिरा रहे थे तब हमारे सैम अंकल ने कहा था की जूते का नम्बर १० था । वह बुश साहब क्या अपने गौर किया की जो जूता आपके ऊपर पड़ा था उसका नम्बर क्या था ?? तब तो आप इसे भागे जैसे किसी कुत्ते को आपके पीछे छु करवा दिया हो ।
ये तो बात थी हमारे सैम अंकल की। उसके बाद तो मानो जूते फेकने का कोई फैशन शुरू हो गया हो ....... कई लोग तो जूतों की बढ़िया क्वालिटी के लिए दुकानों पर दर-दर भटकते दिखाई दिए की कही से ऐसा जूता तो मिले जो किसी न किसी के नाक तोड़ सके ।
बुश के बाद बरी आई चाइना के प्राइम मिनिस्टर की जिन पर लन्दन में जूता फेका गया । बेचारे कर भी क्या सकते थे उनके देश में किसी ने फेका होता तो बिचारा किसी कोठरी में पड़े पड़े अपने अन्तिम दिन गिन रहा होता ..............
उसके बाद कुछ छुट पुट घटनाये होती रही लेकिन भारत ने भी सोचा चलो हम भी शुरू हो जाए पर मरे किसको ...........
तभी कांग्रेस ने एक बहुत बड़ी गलती कर दी अपने को सबसे बड़ी सेकुलर पार्टी कहने वाली कांग्रेस के मुह पर तब तमाचा पड़ा जब उसने १९८४ में सिक्ख दंगे भड़काने वाले टाईटलर को ही लोकसभा टिकिट दे दिया ये कहा का इंसाफ है????
अपने वोट बैंक टाईट करने के लिए आपको क्या टाईटलर ही मिला क्या ????????//
फ़िर होना क्या था एक हमारा सिक्ख भाई भावनाओ में बह गया ओर उठाया मस्त जूता ओर दे मारा चिदंबरम पर
और कांग्रेस तो ठहरी उदारवादी उसने तो माफ़ भी कर दिया । हां हां माफ़ क्यों नही करोगे इतनी बड़ी गलती जो आपने की है उसके सामने तो येछोटी ही बात है ।
में भी सोचने लगा में किसको मारू???? अरे पर क्या जूता मरने से ये कौन सी हमारी मांगे मांग लेंगे ।
में भी अपनी एक लिस्ट तैयार करने में लगा हूँ । क्युकी मौका देख के चौका तो हम भी मर सकते है न
अब ये पोलितिशन बाज़ तो आने से रहे ओर भारत में तो जूता मरना कोई इतनी बड़ी बात भी नही है किसी भी गईमें चले जाओ कोई न कोई पीड़ित पति अपने पत्नी कोई जूते से पीटता ही मिलेगा ।
अब ये सरकार देश में बेरोज़गारी दूर करने से तो रही तो अगर हर बेरोजगार व्यक्ति एक एक जूता भी मरने लगा तो एक जूतों का कारखाना लगाया जन सकता है ।
खैर इन सबकों से भी अगर सरकार ने कुछ सिखा तो वो ये नही की देश का कुछ भला करे सीखा की देश में जूते के कारखानों का पता लगाया जाए ओर कड़क कुँलिटी का जूता बनने वालो पर रोक लगा दी जाए ।
अरे आप कितने लोगो कोई जूते मरने से रोकोगे अगर देश की जनता एक जुट हो गई न दिन भर जूते ही खाते नज़र आओगे ...........
खैर अगर कोई नेता इसे पड़े तो माफ़ी चाहूँगा भइया नही तो कही हमे घर से उठवा लिया तो हमे तो नेताओ से बड़ा डर लगता है भइया ..................... में तो छोटा सा नन्हा सा बच्चा हु मुझे कुछ करना मत ...................
चलो अगर जिन्दा रहे तो फ़िर मिलेंगे नही तो हरिद्वार में मिलेगे ।
लेकिन आप तो लिखते ही रहना इस देश में होने वाले हर ग़लत काम के खिलाफ .................
हा पर आचे क्वालिटी के जूते खरीदना मत भूलियेगा
वंदे मातरम
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