Wednesday, December 30, 2009

एक अनथक यात्री


कहीं पेड़ो की शाखे थी झुरमुट
निकला था पहने मृगतृष्णा का मुकुट
चेहरे पर मंद मंद मुस्कान लिए
आँखों में अजब सा तूफ़ान लिए
चलना चाहता था मै सैलाब लिए
किन्तु आसान नहीं थी डगर
ऊपर से जीवन एक अजायबघर
लोगो की संदेहास्पद शक्लें
जिन पर ठहरी हुई उनकी अक्लें
निरंतर सहज भाव से असहज होकर
अपने आपको मुझमे खोकर ...
एक अधस्वप्न लिए मुझे घूर रही थी
सोच रही थी कि ये यात्री कहाँ तक सफ़र करेगा
कितने दुःख और पीडाओं को समाज का दायित्व समझ कर भोगेगा
मगर मुझे आगे जाना था ,कुछ खोना कुछ पाना था
निरंतर अपने आपको करके सुपुर्द इस जीवन में
चला जा रहा था निर्जन वन में
इतने कष्ट और पीडाएं सहने के बाद भी
न जाने कौन सा अभिलाषा उसे आगे ले जा रही थी
उसे विश्वास है कि वो पहुचेगा मंजिल पर एक दिन
इसलिए वो है एक अनथक यात्री

1 comment:

Unknown said...

very good nice......i like "ek anath yatri"so good....keep it up....