शारीरिक दंगल ,
ह्रदय अमंगल ,
चेहरे का मर्म ,
रोगान्तक चर्म ,
असहनीय पीड़ा ,
मनो कम्बल में घुस गया हो कोई कीड़ा ,
बन गई है जी का जंजाल,
ये अप्राकृतिक नपुंसक चाल ,
प्रबल हुई आत्मसमर्पण की भावना ,
पूरी हुई नंग्न विचरण की कामना ,
ऐसे ओढ़ी जा रही है चादर ,
मनो गागर में सागर ,
सबकी यही गत्या है ,
यह तो शाश्वत सत्य है ,
ख़त्म हुई शारीरिक सौंदर्य की होड़ ,
उफ़ ! ये कमबख्त बालतोड़ ।
बदली दिनचर्या , छूटे विलास भोग ,
चरमोत्कर्ष पर आ चूका है यह रोग ,
इसी रोग की सौगात है ,
की गुसलखाने में सोना जैसे अब आम बात है ,
आयुर्वेद बेअसर , एलोपैथी मना है ,
बहुत बड़ी विडम्बना है ,
निढाल नेत्र , असहाय शारीर ,
करवाते बदलती मेरी तकदीर ,
बड़ी भयंकर मज़बूरी है ,
ये फोड़ा तो नासूरी है ,
निगाहें फलक पे है
जान हलक में है
यही है सादा जीवन उच्च विचार का निचोड़
उफ़! ये कमबख्त बालतोड़ ।
10 comments:
आनंद आ गया
लाजवाब .
पोला की बधाई भी स्वीकार करें .
hahhaa... nice 1 bro.. peeda me bhi peda
बेहतरीन!
बहुत बढ़िया, मज़ा आ गया .. अपने प्रकार की अनूठी रचना ...
रोचक! मज़ेदार!!
आंच पर संबंध विस्तर हो गए हैं, “मनोज” पर, अरुण राय की कविता “गीली चीनी” की समीक्षा,...!
kambakhat ... super set hai, mujhe 2 sal purane apne baltod ki chubhan yaad aa gai.
hindi mein sabd kaise dalu nahi janta , so roman-hindi swikar ho
dhan dhan ek bar phir
उम्दा रचना है. बालतोड़ क्या हुआ, हाहाकार मच गया. दर्द ऐसा उठा कि पलंगतोड़ हो गया.
बदलते परिवेश मैं,
निरंतर ख़त्म होते नैतिक मूल्यों के बीच,
कोई तो है जो हमें जीवित रखे है,
जूझने के लिए प्रेरित किये है ,
उसी प्रकाश पुंज की जीवन ज्योति,
हमारे ह्रदय मे सदैव दैदीप्यमान होती रहे,
यही शुभकामनाये!!
दीप उत्सव की बधाई .............
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