Wednesday, September 9, 2009

राजनीती के नूरेचश्म !!

भूख है तो सब्र कर
इस समय दिल्ली में ज़ेरे बहस ये मुद्दा ।
दुष्यंत कुमार के इस फेमस शेर से तो सभी वाकिफ है , और जो वाकिफ नही है अपनी कुछ गलतियों की वजह से वो अब हो ही गए होंगे । खैर तो आज बात करेंगे आज के राजनीतिज्ञो की जिनका स्तर दिन पे दिन इस तरह से गिरता जा रहा है जैसे कोई नियाग्रा फाल हो ।
इंदिरा गाँधी ने कहा था गरीबी हटाओ, लेकिन आज यह नारा समाज के कुछ महान ओर सभ्य समझे जाने वाले राजनेताओ ने पलट कर गरीबो को हटाओ कर दिया है । यहाँ गरीब का पेट भरने के लिए २ वक्त की रोटी जुगाड़ना मुश्किल है, पहले से ही दाल और चीनी के भाव इतने ज्यादा बाद गए है की आम आदमी को आते दाल के भाव याद आ चुके है ।
खैर ये सब तो रोज़ का है , तो बात करते है आज की राजनीति के नूरे चश्म हमारे विदेश मंत्री - एस एम् कृष्ण की
सुनने में आया है की ये बहुत विलासिता पूर्वक अपना जीवन गुज़र रहे है , हाल ही में एक बुरी ख़बर जिसका आशय राजनेताओ से न की आम आदमी से , से पता चला है की कई सांसदों और मंत्रियो को फ्री की कोठिया (घर) नही मिल पाए जिसमे दो जाने माने नेताओ के नाम है एक है हमारे विदेश मंत्री एस एम् कृष्ण और दुसरे है विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर इन दो महानुभावो ने घर न मिल पाने की दशा में एक ऐसा कदम उठाया जो भारतीय राजनीती में सदा याद किया जाएगा ।
इन्होने आन्दोलन से भी बड़कर , धरने प्रदशन से भी बढ़कर , नुक्कड़ नाटको से हक मांगने से भी बढ़कर , सभाए करने से भी बढ़कर , गांधीगिरी से भी बढ़कर एक ऐसा करना कर दिखया है जिसे आज की भाषा में साइलेंट किलर वाला फार्मूला कहा जाए तो कोई औचित्य नही होगा ।
क्युकी ये दुनिया के ऐसे पहले ही लोग होंगे जिन्हें घर नही मिल पाने के कारण इतना ज्यादा विलासितापूर्ण जीवन मिला जितना की ये घर में होने के बाद भी नही बिता पाते ।
खैर जब घर नही मिला तो ये दोनों एक सस्ती सी होटल के शरणार्थी बन गए , सुना है जिस होटल में हमारे राजदुलारे विदेश मंत्री रुके थे उसका एक दिन का किराया इतना सस्ता था की जिसमे दिल्ली के साईकिल रिक्शा चलाने वाले जितने भी लोग है उनका साल का खाने पिने का खर्चा निकल जाता , होटल का किराया था १ लाख रुपए रोजाना .......... आगया न सुनकर हार्ट अटेक मुझे भी आगया था वो तो भला हो जो मेरे हॉस्टल के पास में एम्स हॉस्पिटल है जिसने मुझे ये एहसास करवा दिया की- अभी हम जिन्दा है.............. डरने की बात नही है ।
इससे पता चलता है की देश की हालत एक ऐसे आदमी की तरह है जिसे ब्लड कैंसर है और वो अपने अन्तिम दिन गिन रहा हो । यहाँ एक गरीब के खाने के लिए रोटिया नही है , देश में बेरोज़गारी बढती जारही है , पड़ोसी देश की सीमओं में घुसे चले आरहे है , देश की अर्थव्यवस्था तेज़ी से गिरती जा रही है , लेकिन ये लोग मानने को तैयार ही नही है क्या करे .......
वैसे प्रणब दादा ने कुछ समझाइश दी है की हद हो गई अब इतनी भी अति मत करो की जनता जूते मारे लेकिन ये कहा समझने वाले थे ये कह कर पल्ला झाड़ लिया की ये तो हमारे निजी खर्चे से है ......... हा हा वो तो दिख ही रहा है आपका निजी खर्च । एक विदेश मंत्री की तनख्वाह ५० से ७० हज़ार महिना होती है जो सभीको पता है, तो ये एक लाख दिन का भाडा कहा से आया । खैर जनता इतनी भी बेवकूफ नही है की उससे १९७० के फोर्मुले से बेवकूफ बनाया जा सके ....
यहाँ पर जगजीत सिंह की एक फेमस ग़ज़ल याद आती जो इस कांड पर पूरी तरह बैठती है
आपको देख कर देखता रह गया
क्या कहू और कहने को क्या रह गया
ऐसे बिछडे हम - तुम होटल के मोड़ पर
आखरी हम सफर रास्ता रह गया ।

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